सत्संग की महिमा महान है, जो कही नही जा सकती। सत्संग के बारे में संत दयाबाई जी ने कहा है–
“साध संग जग में बड़ो, जो करि जानै कोय। आधो छिन सतसंग को, कलमष डारे खोय॥”
दयाबाई जी कहती है कि साधु संग अर्थात जिसने स्वयं को साध लिया हो, उसका संग अर्थात सत्संग के महत्व को जो समझता है, केवल वही सौभाग्यशाली सत्संग करता है। क्योंकि सत्संग का आधा क्षण भी मन के हजारों कलुषता या मेल को धो देता है।
इसलिए सत्संग को साबुन की तरह आत्मा से मैल दूर करने वाला कहा गया है। यह धीरे धीरे मन के विकारों को दूर करता है। क्योंकि सत्संग सुनने से हमे संतों के विचार सुनने मिलते हैं, और इससे हमारी समझ बढ़ने लगती है।
“पाँच क्लेश ब्यापै नहीं, चित न होय विक्षेप। जो जगमग सतसंग मिले, तन मन सन निर्लेप॥”
युगलान्यशरण
संबंधित विषय : रसिक संप्रदाय में कहा गया है कि सत्संग सुनने से जीव को पांचों क्लेश या विकार व्याप्ते नही, और मन में कोई विकार पैदा नहीं होते। और सत्संग के प्रभाव से तन और मन दोनों ही शुद्ध हो जाते हैं।
“परसुराम सतसंग सुख, और सकल दुख जान। निर्वैरी निरमल सदा, सुमिरन सील पिछान॥”
संत परशुरामदेव जी कहते हैं कि जगत में सत्संग ही केवल सच्चा सुख है, बाकी सब दुख समान है। यही जीव का परम हितैषी है और इसलिए इसकी महिमा को पहचानो।
“साध-साध सब कोउ कहै, दुरलभ साधू सेव। जब संगति ह्वै साध की तब पावै सब भेव॥ “
संत दयाबाई जी कहती हैं कि साधु साधु तो सब कहते हैं, लेकिन किसी दुर्लभ जीव को ही साधु की सेवा प्राप्त होती है। और सेवा से ही सत्संग मिलता है। और सत्संग एक बार जो मिल जाए तो उसे सब भेद मिल जाता है।
इसलिए सत्संग से जीव का सब ओर से कल्याण होता है, और यह जीव को परमात्मा से मिला देता है। विकारों के दूर करने का यह सबसे बड़ा साधन है। भीतर से जीव की आत्मा को निर्मल बना देता है। अतः यह ईश्वर प्राप्ति का सहज साधन है, जो बड़ी बड़ी साधनाएं, ध्यान, जप, सेवा नही कर सकते उनके लिए एकमात्र सत्संग से सब संभव हो जाता है, और ईश्वर की सहज प्राप्ति हो जाती है, क्योंकि यह बाकी सभी सात्विक गुणों को पैदा करके हमे परमात्मा की प्राप्ति के लायक बना देता है।