आख़री जन्म मतलब मुक्ति की अवस्था।
जो जीतें जी मुक्त होता है, जो जीवन मुक्त होता है, वहीं शरीर के मृत्यु के बाद मुक्त हो सकता है, उसी का आखिरी जन्म होता हैं।

राग और द्वेषादि का मिट जाना, आसक्तियों का मीट जाना, काम-क्रोध, लोभ-मोह अहंकार का मीट जाना सच्चा मोक्ष है।

मतलब जब सभी राग द्वेषादि मिट जाते हैं, सभी कर्म बंधन खतम होते हैं, तब पुनजन्म नहीं होता।

जिसका आख़री जन्म होता है, उसके भीतर के राग और द्वेष दोनों भी समाप्त हो जातें हैं। प्रकृति और परमात्मा उसे भौतिकता में अटकने नहीं देते। इसलिए उसके भौतिक जीवन में दुःख कुछ ज्यादा ही होते हैं। लेकिन वह सुख दुःखों के प्रति या लोगों के प्रति भी समदर्शी होता है।
वह सुख में हर्षित और दुःख में दुःखी नहीं होता।

जिसका आख़री जन्म होता है, उसे किसी स्त्री या पुरुष के देह से प्रेम नहीं होता। वह अकामी सब से अलिप्त होता है।
वह किसी से रिश्ते नाते जोड़कर नए बंधन नहीं बांधता। और अगर उसे कभी किसी से थोड़ा-सा भी लगाव हो, तो उसे वहां से तोड़ा ज्याता है।

जिसका आख़री जन्म होता है, कुछ लोग बेवजह ही, उसकी तमाम अच्छाईयों के बाद भी उससे नफ़रत करते रहते हैं। खुद परमात्मा उन्हें किसी से अटैच होने नहीं देते, और इसलिए ही ऐसी, इस तरह की परिस्थितियां उसके जीवन में आतीं हैं।

उसे हमेशा ऐसा लगता है कि मैं यहां क्यों हूं?
मुझे यहां नहीं होना चाहिए था।
यह मेरा असली घर नहीं है।
यहां के लोग और यहां की चीजें कुछ भी मेरा नहीं है।
उसे पता होता है कि यहां कोई किसी का नहीं है, यहां तक कि अपना खुद का देह भी।

उसके लिए धरती पर की सब चीजें मिट्टी है।
वह हमेशा द्रष्टा भाव में होता है।
उसके लिए देह मिट्टी है और आत्मा परमात्मा।

वह सृष्टि की अन्य चीजों को महत्व नहीं देता।
उसके लिए देह परमात्मा को सधने का साधन है।
उसके लिए परमात्मा, भीतर की शांति सर्वोच्च है।

उसके सगे भाई बहनों से उसकी नहीं जमती।
अपने सगे-संबंधियों से बहन भाईयों से उसे प्यार नहीं रहता।
संतों के लिए उसके दिल में बेवजह प्यार उमड़ता है।
संतों की सेवा में उसकी आत्मा को आनंद आता है।
वह संतों के चरणों में गिर पड़ा रहना चाहता है और बदले में कुछ भी नहीं चाहता।

संतों की सेवा के लिए वह ऐसे भागता है कि, उसको खुद की सुध बुध नहीं रहती।

सबसे महत्वपूर्ण बात, जिसका आख़री जन्म होता है उसमें मोक्ष प्राप्ति की तीव्र इच्छा जगती है।
उसे पूर्ण गुरु की प्राप्ति होती है।
वह सदगुरु को नहीं ढुंढता, लेकिन उसके मोक्ष गुरु उसे ढुंढते ढुंढते उसके पास आ जातें हैं।

उसके पिछले सद्गुरु के उसे दर्शन होते हैं।
वह अपने गुरु को पहचान लेता हैं।
और फिर सदगुरु का अनन्य भक्त होकर, उनसे मिली आत्मज्ञान की दीक्षा के निरंतर अभ्यास से मोक्ष प्राप्त कर लेता है। तब उसका पुनर्जन्म नहीं होता।

वह सच्चा योगी होता है।
चाहे कर्मयोगी हो, चाहें संन्यासी हो वह हर कार्य को करतें हुए भी भीतर से परमात्मा से जुड़ा हुआ होता है।

जिसका आख़री जन्म होता है उसके भौतिक जीवन में दुःख ज्यादा होते हैं, और फिर भी उसकी भीतरी अवस्था दुखमुक्त होती है।
वह भीतर से शांतमन होता है।
वह बाहर वीर हो या ना हो, पर वह भीतर से पूरा महावीर होता है।

वह सदा स्व-स्वरूप की अनुभूति में होता है। उसके मन में विचार नहीं उठते।
वह मन की क्रियाओं से सर्वथा मुक्त होता है।

उसने जीवन के रहते जीवन के चरम सत्य को जान लिया होता है।
वह बुद्ध पुरुष रहता है संसार में, पर भीतर से अकेला बना हुआ रहता है।
वह भीतर से अकेला व शांतमन होता है।
वह सभी सुख-दुःखो से पार होता होता है।

वह सभी कर्तव्यों को तो निभाता है, पर किसी में आसक्त नहीं होता।
वह सदा आत्मभाव में होता है।
वह अहंकार शुन्य होता है।
वह सत्यव्रता, सत्यवादी होता है।
वह जो भी करता है, निश्काम भाव से करता है।
उसके लिए मित्र और शत्रु समान होते हैं।
धन्यवाद!

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