युग कोई भी हो गुरु के बिना पुरा ज्ञान या आत्मज्ञान की प्राप्ति असंभव है।
यह जो गुरु परंपरा है ख़ुद परमात्मा ने स्थापित कि हुईं हैं। परमात्मा ही गुरु रुप में धरती पर साकार अवतार धारण करते है। और उपदेश, ज्ञान देकर हम जैसे भवबंधन में अटके हुए लोगों को भव से पार होने की तरकीब बताते हैं।
मोक्ष हमारे आत्मज्ञान में, अपने “स्व” स्वरुप में जागने के बाद की अवस्था होती है। मोक्ष आत्मज्ञान में जागने के बाद, कर्म बंधनों को समझने के बाद, विवेक और वैराग्य से धीरे-धीरे घटित होता है। मोक्ष समझने के आत्मज्ञान चाहिए जो केवल गुरुकृपा का विषय है।
श्रीमद्भगवद्गीता गुरु शिष्य संवाद है, आत्मज्ञान का ग्रंथ है। श्री अष्टवक्र गीता आत्मज्ञान का उपदेश करती है। अवधूत गीता, विवेक चूड़ामणि सब आत्मज्ञान पर के ग्रंथ है।
फिर भी गुरु के बगैर बात नहीं बनती। किताबें पढ़कर इंसान पंडित बन सकता है, ज्ञानी नहीं बन सकता। ज्ञानी बनने के लिए एक ज्ञानी ही चाहिए। एक जलते दीपक से ही दुसरे दीपक को जलाया जा सकता है।
सद्गुरु उपदेश से भौतिक जीवन की क्षणभंगुरता का पुरी तरह से एहसास हो जाता है, तब कहीं अंतर में वैराग्य उपजता है। फिर संसार के प्रति प्रखर वैराग्य को मुक्ति का द्वार कहा गया है।
तो जब तक सद्गुरु नहीं तब तक विवेक नहीं, विवेक का मतलब भी ज्ञान, एक गहरी समझ होता है। विवेक नहीं तो वैराग्य नहीं, वैराग्य नहीं तो मुक्ति भी नहीं। तब सिद्धियां और आत्मज्ञान प्राप्ती कैसी।