सच्चा “धर्म” तो यह है कि आत्मा पर जो मोह माया की मैल का आवरण चढ़ चुका है, उसे नाम की कमाई से धोकर “आत्मा” को परमात्मा से मिलाना है। शेष शारीरिक उन्नति तो धर्म की छाया मात्र है।।
जैसे ज्योति बिना नयन और आत्मा बिना शरीर का कोई अर्थ नहीं, वैसे ही रूहानियत के बिना धर्म का कोई महत्व नहीं।।
तुम सच्चे मन से यदि गुरु-शब्द का अभ्यास करोगे तो समस्त बन्धन टूट जायेंगे और जीवन्मुक्त हो जाओगे।।
सन्तों की वाणी केवल पढ़ो नहीं अपितु अमल करके देखो तो अनुभव खुल जायेगा और स्वयं को परिवर्तित रूप में देखोगे अर्थात दुखिया से सुखिया, भूखे से तृप्त तथा अशान्त से शान्त हो जाओगे।।
जैसे तुम अपनी आँखों से देख सकते हो, कानों से सुन सकते हो और मुख से बोल सकते हो वैसे ही आत्मिक अनुभव भी जागृत करो, तब तो तुमने कुछ प्राप्त भी किया। महापुरुषों के अनुभव का लाभ तो तभी होगा जबकि उनकी वाणी पढ़-सुन कर उस पर अमल किया जाये।।
गुरु वचनों को रखना संभाल के
एक एक वचन में गहरा राज है।।
यह जीव ईश्वर की अंश, मलरहित और सुखों का भंडार है। जो जो गुण ईश्वर में हैं वही गुण इसके अंदर भी विद्यमान है। उदाहरणतया समुद्र के पानी में जो गुण है वही पानी की बूंदों में भी मौजूद हैं। जब वह बूंद मिट्टी में मिल गई तो कीचड़ का रूप बन गई। उसका पानी के रूप का अस्तित्व समाप्त हो गया। उसने कीचड़ का रूप धारण कर लिया और निज रूप से अलग हो गई। इसी तरह जीव काल और माया के अधीन होकर विषय विकारों में फंस जाता है और अपने अस्तित्व को खो देता है ; इसके में गुण आरोप हो जाते हैं। थे अच्छा फिर कब प्रकट होते हैं? जब वह विषय विकारों से आजाद होगा। जिस प्रकार वह पानी की बूंद मिट्टी में मिलकर कीचड़ बन गई। गर्मी में भाप बनकर बादल बनी, बादल बरसने पर फिर उसी पानी के रूप में बदल गई, अपने वास्तविक स्वरूप को धारण कर लिया।
इसी प्रकार यह जीव भी काल और माया की लपेट में आया हुआ है। सौभाग्य से इसे जब सत्पुरुषों की संगति का सहयोग मिलता है तो मोह माया के आवरण हटाने के लिए भक्ति की कमाई करता है। जीवन को पवित्र शुद्ध बना लेता है। जी आनंद सुख में भंडार से वंचित हो गया था, उसे प्राप्त कर लेता है।
बोलो जयकारा बोल मेरे श्री गुरु महाराज की जय
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शालिनी साही
सेल्फ अवेकनिंग मिशन