जब-तक मनुष्य भगवान को तत्व से नहीं जानता, जब-तक मनुष्य भगवान का वास्तविक स्वरूप और कर्म-बंधनो के नियमों को नहीं जानता तब-तक भगवान को दोष देता रहता है। चाहे वे भगवान को मानने वाले हो या न मानने वाले।
भगवान को न मानने वाले ही नहीं, मानने वाले भी भगवान को हमेशा दोष देते रहते हैं। क्योंकि मानते तो है लेकिन तत्व से जानते नहीं। मानने और जानने में बहुत फर्क होता है।
और जो नहीं मानते वे इसलिए दोष है क्योंकि वे मानते भी नहीं और जानते भी नहीं, लेकिन उन्हें इतना तो जरूर पता होता है कि, कहीं न कहीं कोई भगवान है जो सबका बाप है। जिसने जगत का और हमारा निर्माण किया। उनको दोष देने के लिए भगवान की इतनी पहचान काफी है।
हमारा देश भगवान को मानने वालों का देश है। यहां भगवान है यह सबकों पता है। वह सबका पिता है यह भी पता है। न मानने वाले भी भीतर कहीं न कहीं मानते तो है ही तभी तो दोष देते हैं।
हम उन्हें मानें या न माने वह सबके मालिक है तो उनका कर्तव्य है की हमारा सब ठीक करना या हमे खुश रखना ऐसी हमारी समझ होती है। नादान होते हैं वे भगवान को दोष देने वाले। जैसे हमारी मां होती है ना, हम कपड़े इधर उधर फेंकते हैं और मां उठातीं रहती है। हम हुड़दंग मचाते हैं, घर का सामान इधर-उधर कर देते हैं और मां ठीक करतीं रहती है। हम भगवान से भी ऐसी ही उम्मीद रखते हैं। हम चाहते हैं की हम जो भी मनमानी करें भगवान हमारे साथ हो। हम चाहे किसी का अच्छा करें या बुरा हमारे साथ सब अच्छा हो।
भगवान को दोष देना यह एक अज्ञान है, एक नासमझी है। नासमझी और अज्ञान के कारण हम हमारे कार्यों के प्रति बेपरवाह होते हैं और फिर कार्य बिगड़ जाता है तो भगवान को दोष देते रहते हैं।
भगवान हमारे भीतर होते हैं चाहे हम उन्हें मानें या न माने। हमारे जन्म के साथ ही, जन्म से ही भगवान हमारे साथ होते हैं। उनको न माने तो भी उनके अस्तित्व के कारण भीतर कहीं न कहीं एक गहरा अहसास रहता है कि भगवान है। और इसलिए दुःख के समय में उनकी याद आती है और उन्होंने सब ठीक क्यों नहीं किया इसलिए उनपर गुस्सा भी।
धन्यवाद!