अध्यात्म यानी अपने अंदर का आत्मतत्व, जो पैदाइशी हमारे, हम-सब के अंदर मौजूद होता है। अध्यात्म आचरण यानी हमारे अंदर का जो चेतन मूल तत्व है, जो चेतन है लेकिन निर्गुण निराकार है, उसे तत्व से जानने का प्रयास। अध्यात्म आचरण मतलब, उसे उसके समस्त गुणों के साथ जानना, उसके समस्त गुणों को जानकर अपने अंदर उतारने का प्रयास करना। उसके गुणों को अपने अंदर उतारना, उन्हें धारण करना, वैसा व्यवहार करना।

यह अध्यात्म मूल रूप से अज्ञान के दशा में, सुप्त अवस्था में हमारे हरेक के अंदर मौजूद होता है। और इसे जगाना पड़ता है। जो अध्यात्म में जगा हुआ परिवार है वहां के बच्चों में संस्कारो के कारण यह जग जाता है। हमे हमारे जीवन में सदगुरू की, संतों की जरूरत क्यों पड़ती है ? तो इसे, अपने अंदर के इस अध्यात्म को जगाने के लिए।

जब तक मनुष्य अध्यात्म में नहीं जागता मनुष्य में और पशू में केवल आकार का फर्क होता है। जब मनुष्य में यह अध्यात्म अपने गुणों सहित जाग जाता है, तभी वह मनुष्य सही मायने में मनुष्य कहलाता हैं।

अध्यात्मिक होना यानी अपने मे जागना ही है। और फिर जो अपने मे, अपने भीतर जागता है वह दया, क्षमा, शांति, साहस, सकारात्मकता, कलात्मकता, धैर्य जैसे गुणों से परिपूर्ण हो जाता है। एक सर्वांगीण विकासशील सकारात्मक सफल, शांत इंसान बन जाता है। क्योंकि यह आत्मा के गुण है यह अध्यात्म के गुण है।

इंसान का जन्म ही अपने अंदर के अध्यात्म में जागने के लिए हुआं है। और उसी में उसकी सफलता है। जो अपने को जानने में सफल हुआं वह बाहरी दुनिया को, दुसरो को जानने में भी सफल होता है। बाहरी दुनिया में भी एक सफल व्यक्ति बन पाता है। मनुष्य का सर्वांगीण विकास केवल अध्यात्म आचरण से ही संभव है।

जब हम हमारे ही अंदर के अध्यात्म में नहीं जागते हम अधुरे है। हम खुद को नहीं समझते इसलिए दुनिया को भी नहीं समझ सकते। उसके नियमों को, प्रकृति के नियमों को, लोगों को, सही ग़लत को नहीं समझ सकते। और फिर भौतिकता में भी हारते हैं,फेल हो जाते हैं। जिसे मनुष्य जीवन मिला है उसका अध्यात्म में जागना अनिवार्य है। उसका सर्वांगीण अंतर बाह्य विकास होना जरूरी है। तभी उसके मनुष्य होने का मतलब है, सार्थक है।

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