अध्यात्म की राह अपने भीतर की ओर बढ़ने की राह है, जबकि संसार की ओर बढ़ना यानी बाहर की ओर बढ़ना है। संसार में आंखों से बाहर सबकुछ दिखाई देता है, कहां जाना है? क्या करना है? कोई ना कोई मार्ग दिखाने वाला भी मिल जाता है। लेकिन हम जब आंख बंद करते हैं तो केवल और केवल अंधेरा ही दिखाई देता है। तो एक कदम जाना भी मुश्किल लगता है, जबकि अनंत गहराई है भीतर हमारे। जितना बाहर का संसार हम देख पाते हैं, उससे अनंत गुना एक सुंदर रचना हमारे भीतर समाई हुई है। बस उसे देखने के लिए कोई मार्गदर्शक और रोशनी चाहिए। ये भीतर की ओर यात्रा कराने वाला मार्गदर्शक ही सतगुरु होते हैं, और ज्ञान की रोशनी हमे चाहिए होती है।

किंतु शुरुवात से ही ये दोनो नही मिल जाते, पहले नियमों के मार्गदर्शन में ही हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा की शुरुवात कर सकते हैं। परमात्मा भी इतनी आसानी से हमें भीतर की यात्रा पर आगे नहीं बढ़ाते, पहले वो हमारी योग्यता और दृढ़ता की परीक्षा लेते हैं। वो जीवों को पहले कसौटी पर कसते हैं की देखें तो पहले व्यक्ति इस राह पर चलने लायक हैं भी या नहीं। इसलिए उसे पहले नियमों की आग में तपाया जाता है, मजबूत बनाया जाता है, ठीक वैसे ही जैसे: छोटे बच्चों को नियमों के तहत स्कूलों में लाइन से खड़े होने कहा जाता है, यूनिफॉर्म पर ध्यान रखने कहा जाता है। उनको कड़े नियमों में ढाला जाता है, पढ़ाई संबंधी कार्यों को सख्ती से करने के निर्देश दिए जाते हैं, तो ये सब वो नियम हैं , जो उनके पूरे जीवन को एक सही दिशा में ले जायेंगे। बच्चों को बहुत बुरा लगता है, पर अच्छे बच्चे और उनके माता पिता

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