कर्म का ऐसा है कि यह तो होते ही रहते हैं। बीना कर्म किए तो कोई भी नहीं रह सकता। अब देह हैं तो देह के निर्वाह के लिए कुछ ना कुछ तो करना ही पड़ेगा ना!
तों हमे कर्म करना छोड़ना नहीं है। हमे कर्मों के खेल को समझना है।
हमे कर्म क्या है? इससे इंसान कैसे बंधता और कैसे छुटता है यह जान लेना है। और फिर उन में जागना है।
हमे कर्मों से भागना नहीं है कहीं पर भी और हम कही भाग भी नहीं सकते। हमे ना कर्मों से भागना है, ना संसार से। हम जहां भी जाएंगे देह तो साथ में ही रहेगी और देह के लिए कर्म करना आवश्यक है।
कर्म बंधन की जो जड़ है वह है आसक्ती, कर्ता पण। और प्रारब्ध का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता।
परमात्मा के प्रेम में केवल परमात्मा प्राप्ति के लिए किए गए कर्म बंधन कारक नहीं होते। परमात्मा को ध्यान में रखकर कर्म के कर्ता नहीं केवल एक साक्षी होकर किए गए कर्म बंधन कारक नहीं होते।
मोह माया ममता के वशीभूत होकर किए गए कर्म बंधन का कारण बनते हैं। इंद्रियों के वश में होकर, अहंकार से किए गए कर्म बंधन का कारण होते हैं।
और इन दोनों कर्मों के निचोड़ से हमारा प्रारब्ध बनता है। प्रारब्ध का कारण हमारी कर्मों में आसक्ती या अनासक्ति होती है। प्रारब्ध हमेशा कर्मों के स्थिति से, कर्ता और अकर्ता भाव से बनता है।
इसलिए गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मुझ में मन बुद्धि रखकर अकर्ता भाव से कर्म करो। फिर तुम बंधन को नहीं मोक्ष को प्राप्त होओगे।
अपने अंदर साक्षी चेतन भाव में स्थित रहना और बाह्य रूप से निर्दिष्ट धर्म कर्त्तव्यों का पालन करना कर्मयोग कहलाता है।