नामस्मरण से मुक्ति मिलेगी और ध्यान-योग से नहीं यह बात ग़लत है। और नाम-जाप को भी केवल रटने मात्र से मुक्ति नहीं मिलती। मुक्ति के लिए नाम भी सदगुरु प्रदत्त हो, अपने मनमर्जी का नहीं। सदगुरु प्रदत्त नाम को अर्थ के साथ समझकर उससे एकरूप होना होता है।
नाम जाप से मुक्ति मिलेगी यह सत्य है! लेकिन उसके पहले वह मुक्ति देनेवाला नाम क्या है? कौनसा है? उसे कैसे प्राप्त किया जाता है? और कैसे जपा जाता है? पहले हमे यह सबकुछ समझना होगा।
और ध्यान-योग से मुक्ति नहीं मिलती यह सच नहीं है। मुक्ति के मार्ग में नाम और ध्यान यह दोनों भी सहायक है। मुक्ति के साधन मात्र है। इन दोनों की सहायता से ही मुक्ति घटित होती है, पर मुक्ति वास्तव में एक अलग विषय है। उपर उपर की बातें अलग है और भीतर की बात अलग है। यह गुढ़ रहस्य हे और यह केवल एक सच्चा गुरुमुख ही समझ सकता है।
मोक्ष जो है गुरु की देन है। मोक्ष गुरु के ज्ञान को अपने भीतर उतारकर उस हिसाब से अपने जीवन को गढ़ लेने से मिलता है। गुरु के उपदेश से अज्ञान का संपुर्णतया हट जाना, स्वयं के स्वरूप की पहचान हो जाना और उसके बाद मोक्ष होता है।
पुर्ण गुरु से गुरुदीक्षा में गुरु से मिला नाम-शब्द परमात्मा का स्वरूप होता है। उसे अजंपा कहते हैं। जैसे परमात्मा हम सबके भीतर विद्यमान है वैसे वह नाम भी हमारे भीतर पहले से ही विद्यमान है। सदगुरु आकर केवल उस नाम को उजागर करतें हैं। सदगुरु हमारा अज्ञान हटाकर हमें उस नाम से, हमे स्वयं से जोड़ते हैं।
गुरु जो शब्द का उपदेश करते हैं उस परमात्मा शब्द से भीतर जागृति आतीं हैं। उस परमात्मा के स्वरूप शब्द को भीतर की जागृति में, सजग होकर, अर्थ सहित समझकर भीतर ही भीतर, श्वासो-श्वास में निरंतर जाप से, उसपर ध्यान रखने मात्र से भीतर का साक्षी घटित होता है। स्व-स्वरूप की प्राप्ति होती है, और स्व-स्वरूप प्राप्ति से मोक्ष घटित होता है।
कोई भी सर्वसाधारण अपने मनमर्जी से या किसी साधारण व्यक्ति के कहने पर लिया हुआ और जपा हुआ नाम मनुष्य को मुक्ति की ओर तो लें जाता है लेकिन उसे मुक्ति नहीं दे सकता।
मुक्ति देनेवाला नाम सभी नामों से अलग होता है, गुप्त होता है। जिसे पूर्ण आत्मानंदी, आत्मज्ञानी, आत्मसाक्षात्कारी आत्म अनुसंधानी, आत्मा के पुर्ण जानकार सदगुरु से दिक्षा में पाया जाता है।
उस निराकार परमात्मा का नाम भी उसके जैसा ही निराकार होता है, उसे ओठों से जपा नहीं जाता। मनुष्य को मुक्ति देने वाला वह नाम जीभ का विषय नहीं है, वह प्राकृतिक है, वह श्वासो का विषय है।
गुरु दीक्षा में उस नाम का दान होता है, सदगुरु से हमें उसे प्राप्त करना होता है। शुरू शुरू में इसे हमे सदगुरु से समझना होता है, और फिर बाद यह भीतर ही भीतर निरंतर चलता रहता है। इसलिए इसे अजंपा-जाप कहते हैं।
सदगुरु प्रदत्त उस गुप्त नाम के होशपूर्ण जाप से स्वरूप प्राप्ति घटित होगी, और तत्पश्चात मोक्ष।
और परमात्मा के उस सदगुरु प्रदत्त गुप्त नाम से ही ध्यान घटित होता हैं। ध्यान नाम के आगे की अवस्था है। नाम से ही ध्यान की यात्रा होती है, और ध्यान से समाधि। समाधि परमात्मा से एकरुपता है, और फिर उसके बाद मोक्ष की स्थिति।
नाम के प्रताप से मनुष्य में एकाग्रता बढ़ती है, मन स्थिर होता है। नाम के आगे की अवस्था ध्यान घटित होता है। ध्यान में ही स्वरूप का साक्षात्कार होता है। और यही सेल्फ रियलाइजेशन है। ध्यान-मेडिटेशन से भीतर का जो साक्षी घटित होता है, उस साक्षी चेतन का बोध होता है, जो आत्मा की अनुभूति होती हैं उसे ही आत्मसाक्षात्कार कहते हैं।
तो ध्यान से मुक्ति नहीं मिलती और केवल नाम से मुक्ति मिलती है यह कहना ग़लत होगा है। क्योंकि ध्यान तो नाम-जाप की आगे की अवस्था है।
पहले नाम और फिर ध्यान से जब मनुष्य को अपने स्वयं की, अपने स्व स्वरूप की अनुभूति या पहचान होती है तभी उसका मोक्ष हो सकता है। जब उसे अपने स्वयं के “मैं कौन हूं” की पहचान होगी तभी वह आसक्तियों से छूटेगा। तभी वह कर्म-बंधनो से छूटेगा और तभी उसका मोक्ष होगा। और ध्यान इसमें बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ध्यान से ही स्वयं का साक्षात्कार होता है। नाम जाप के आगे की अवस्था ध्यान हैं। और यही सत्य है।
सच्चा गुरु और गुरुशब्द बोध से भीतर का नाद खुलता है। तब वह अजंपा-जाप नाम और नाद भीतर में दोनों चलते हैं। तब व्यक्ति साक्षी चेतन अवस्था में स्थित-स्थिर हो जाता है। साकार होकर भी नित्य निराकार में बसता है, तब उसका मोक्ष होता है। मोक्ष केवल बोलने की बात न होकर मोक्ष अनुभव की बात है।
तो नाम और ध्यान दोनों भी मोक्ष के साधन है। नाम पहली अवस्था है और ध्यान दूसरी। ध्यान से सेल्फ रियलाइजेशन होता है और उसके बाद व्यक्ति उस विवेक से सभी कर्म-बंधनो, आसक्तियों से छूट जाता है। अंत में मोक्ष को उपलब्ध होता है।
ध्यान के बाद तीसरी जो समाधि अवस्था आतीं हैं वह परमात्मा से, अपने स्वयं के स्वरूप से एकरुपता है।
धन्यवाद!