ईश्वर जो सर्वव्यापी, निराकार है, निर्गुण और सीमा रहित है, उसने स्वयं को जानने के लिए कि मैं कैसा हूं? क्या गुण है मेरे जरा अलग अपना एक रूप बना कर तो देखूं, इसलिए मौज वश उन्होंने अपने निराकार स्वरूप से कई रूप पैदा किए। क्योंकि कोई खुद को नही देख सकता, खुद अकेला कोई कैसे अपने को देखेगा? नही ना, जैसे खुद को देखने के लिए हम दर्पण का इस्तेमाल करते हैं, तभी खुद से अलग होकर खुद को देख पाते हैं। इसलिए अपने से अलग अपने ही अनेक अंशों को परमात्मा ने जन्म दिया फिर, ताकि उनके द्वारा मैं खुद को जानूं कि मैं कैसा हूं? इसी प्रकार खेल खेलने के लिए उन्होंने लीला रची। खुद एक से अनेक हो गए क्योंकि कोई अकेला खेल नही खेल सकता। और फिर सबके ऊपर परमात्मा ने माया का परदा डाल दिया। माया अर्थात उनके मन में भ्रम पैदा किया कि मैं ईश्वर से अलग एक सत्ता हूं। और उसे लक्ष्य दिया संसार की भूल भुलैया अर्थात विकारों, वासनाओं, इच्छाओं, सुख, दुख में रहते हुए खुद की पहचान करो, कि मैं ही परमात्मा का अंश हूं, उससे अलग नही।
लेकिन सांसारिक माया इतनी लुभावनी है कि जीव उसमे अपने परम लक्ष्य आत्मज्ञान की प्राप्ति को भूल जाता है, और चौरासी के फेर बार बार जन्म लेता है और मरता है। तब जाकर एक मनुष्य योनि उसे प्राप्त होती है, जहां से वह परमात्मा से मिल सकता है, क्योंकि मनुष्य योनि ही दुर्लभ अवसर है, खुद को जानकर परमात्मा से एक होने का। मनुष्य योनि कर्म योनि है, जहां वह कर्म करके अपने कर्मबंधनों से मुक्त हो सकता है। बाकी सब भोग योनि है, जहां सिर्फ कर्मों के अच्छे बुरे फल आपको भोगने होते हैं। इसलिए इस महानतम अवसर का लाभ हमें उठाना चाहिए। इसके लिए परमात्मा ही सतगुरु रूप लेकर आते हैं और हमारे परम लक्ष्य की ओर ले जाते हैं। इसलिए समर्थ सतगुरु की शरण में जाकर खुद को सौंप देना है। वो दया के सागर हमे इस संसार के मायाजाल से मुक्त करा देते हैं, इसलिए जीवन में गुरु का होना जरूरी है।