
🌟 आओ जाने गुरु भक्ति की मिसाल सहजोबाई 🙏🏻 गुरु बिन और न दूजा आस करूं किसकी…..
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सहजोबाई की गुरु-निष्ठा का जवाब नहीं था। उनकी भक्ति, सत्यनिष्ठा, शालीनता, करुणा, क्षमा, सेवा, योग की चर्चा चारों ओर फैलने लगी। वे गुरु और प्रभु में भेद नहीं जानती थीं।
इस देश की नारी धर्म-अध्यात्म में प्राचीनकाल से अग्रणी रही है, ये उसी श्रृंखला की महत्वपूर्ण कड़ी है। सहजोबाई वे अपने आध्यात्मिक अनुभवों के बल पर काव्यमय सुगंध को निराकार से साकार कर सकीं। चरणदास की शिष्या होकर उन्होंने 108 शिष्यों में वरिष्ठता प्राप्त की।
“मीराबाई” व “दायाबाई” की तरह “सहजोबाई” अपनी साधना से लोगों के आकर्षण का केन्द्र बनीं। इनके नाम से आज भी दिल्ली में गद्दी है। जिसके वर्तमान संत घनश्याम दास जी हैं, जिन्होंने सन 2000 में उनका ग्रंथ ह्यसहज प्रकाशह्न प्रकाशित किया, जिसके अनुसार उनका जन्म विक्रमी सम्वत् 1782 के सावन महीने में शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन (तदनुसार 2 अगस्त 1725) माना गया।
सहजोबाई मूलत राजस्थान की निवासी थीं, जिनके पूर्वज दिल्ली के परीक्षितपुर में आकर बसे। ये भार्गववंशी थीं। पिता का नाम हरिप्रसाद व माता अनूपी देवी थीं।
इनकी शिक्षा घर व गुरुचरण में ही मानी गई, अत: ज्ञान ग्रंथमत न होकर
आत्मगत अनुभवों पर आधारित है।
कम आयु में ही विवाह की रस्म पूरी की जा रही थी, परन्तु स्वामी समर्थदास की तरह या मीरा की तरह-ह्यचुडलो अमर हो जायेह्ण की पद्धति पर मंडप से उठ खड़ी हुईं और भक्ति पथ पर चल पड़ीं। लौटते समय बारात का घोड़ा बिदक कर पेड़ से टकरा गया और वर ने प्राण त्याग दिया। इस घटना से सहजो की गुरु-निष्ठा और भी बढ़ गई कि शायद इसी सत्य को जानकर गुरु ने कहा था- ह्यचलना है रहना नहीं, चलना बिस्वाबीस, सहिजो तनिक सुहाग पर, कहां गुंथावो सीस।
स्वाति बूंद केले में गिरती है तो कपूर बन जाती है, सीप में गिरती है तो, मोती बन जाती है, सांप के मुंह में गिरती है तो विष बन जाती है। खारी धरती में बोया गया बीज नष्ट हो जाता है, अगर वही बीज उचित समय पर उपजाऊ धरती में डाला जाए, तो जल्द ही अंकुरित हो जाता है।
सहजो के हृदय-भूमि पर गुरु ज्ञान के बीज तत्काल प्रकट हो गए। गुरु निष्ठा का जवाब नहीं था। उनकी भक्ति, सत्यनिष्ठा, शालीनता, करुणा, क्षमा, सेवा, योग की चर्चा चारों ओर फैलने लगी। उनके गुरु भाई जोगजीत जी ने श्री लीला सागर में सहजोबाई की सराहना करते हुए लिखा है कि-
सहजोबाई की गुरु-निष्ठा अद्वितीय थी। वे गुरु और प्रभु में भेद नहीं जानती थीं। जैसे कबीर ने कहा था-
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बता।
गुरु ही नहीं उहें परमात्मा से भी महान मानती थीं, और वे परमशक्ति को पाने में योद्धा की भांति लग गईं। समाधि में लीन रहना उनकी सहज प्रवृत्ति बन गई। उन्होंने गुरु का आभार मानते हुए कहा
गुरु के आन्तरिक व बाह्य दोनों ही दर्शन उन्हें सुलभ थे। एक बार गुरु के शाहजहांपुर प्रवास पर चले जाने व दर्शन-द्वय से विहीन हो जाने पर वे मछली की तरह अकुला उठीं।
सहजोबाई के संगठन व सेवा के स्वरूप को पहचान कर गुरुदेव ने इन्हें भ्रमण व अध्यात्म-प्रचार का अवसर दिया और देश में सैकड़ों चरनदासी संप्रदाय केन्द्र स्थापित हुए। तत्कालीन समय में नारी के लिए यह चुनौती भरा कार्य था। पहला तो यही कठिन कि कोई नारी घर-गृहस्थी त्याग कर, योग व आश्रम का आश्रय ले, उस पर उसकी प्रचारक बन कर देश के कोने- कोने में प्रचार करे, पर यही तो उनकी साधना थी, जिसमें शरीर गौड़ व साधन मात्र था, आत्मा प्रमुख थी। वे तन नहीं, मन से संस्कारित थीं।
योग का मार्ग जिसे सूर की गोपियों ने यह कहकर नकारा कि-ह्यउधो जोग- जोग हम नाहीं या उधो मन न भए दस बीस। ह्न और उधो को खाली हाथ लौटना पड़ा। सूर का भ्रमरगीत जिस निर्गुण भक्ति पर सगुण भक्ति को प्रतिष्ठापित करता है, उसमें नारी कारक तत्व भी समाहित हैं। उसी तत्व व मार्ग से सहज लोहा लेती हैं। वैचारिक धरातल पर अपनी सुदृढ़ आस्था भी कभी खंडित नहीं होने देती हैं।
एक घटना प्रचलित है कि सहजोबाई की सिद्धि व प्रसिद्धि से प्रभावित होकर तत्कालीन सम्राट शाह आलम ने सम्वत् 1827 में उन्हें 1100 मोहरें भेंट में दीं और गाजियाबाद के पास एक गांव जागीर में दिया। उनके दस प्रमुख अनुयायियों के नाम – श्याम विलास, कर्तानंद, अगमदास, गुरु निवास, राम प्रसाद, संत हुजूरी, हरनाम, रघुनाथ सनेही, लक्ष्मीबाई, सुमिता बाई थे। ऐसा माना जाता है कि इसवीं 1805 में उन्होंने भौतिक शरीर का परित्याग किया।
किया। सामाजिक जीवन में 24 वर्षों तक अध्यात्म का प्रचार करती रहीं।
इनकी वाणी विचारशील, अगम व भावपूर्ण होते हुए भी विशाल नहीं है। इसमें मुख्य रूप से प्रभु नाम व सद्गुरू के स्वरूप का वर्णन है। साथ ही मानवजीवन, शरीर की उपादेयता, प्रेम, विनम्रता, नवधा भक्तिआदि का वर्णन है। कर्म व कर्मफल को उन्होंने अपने दर्शन का अंग बनाया। कुंडलियां, चौपाई और दोहे के रूप में उनका काव्य उपलब्ध है, जिसमें ब्रजभाषा, राजस्थानी, पंजाबी, खड़ी बोली का मिश्रण है। रागो में बंधी इनकी बानी में भाषा की तरलता-सरलता, भावों की अथाहता व अलौकिक रसानुभूति है।
निजी अनुभवों के आधार पर लोकहित भावना से लिखी बानी पाठकों को परमार्थ की ओर यथोन्मुख करती है। भावना, दर्शन, सिद्धांत व संगीत के मिश्रण से इनकी निर्गुणी भक्तिधारा सगुणता, सौम्यता, सहजता का रूप ले सकी।
ज्ञानी, ध्यानी होना आसान है, सहज होना दुष्कर पर जब तक सहज न हो, ज्ञान का श्रृंगार अधूरा रहता है- संकर सहज स्वरूप संभारा, लागि समाधि अखंड अपारा। ध्यान के अभिलेख अदृश्य, अव्यक्त रहते हैं। सहज होना भक्ति की पराकाष्ठा है, जिसे तुलसी ने लिखा है – सहज सुभाव छुअत छल
जैसा है- वैसा होना आदमी अपने को कितना कृत्रिम कर लेता है, कितने आवरण हैं उस पर, ये सब उतारने के लिए कितने जन्म व साधना की आवश्यकता होती है। अंदर-बाहर एक, मन, ,कर्म वाणी एक, बुद्धि, विचार, चिंतन एक, सब एक तो दूरी कहां? अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा, उभय हरहिं भव संभव खेदा। ईश्वर अंश जीव अविनासी हैं हम। हमारी लिप्साएं हमें क्षणभंगुर बना रही हैं।
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सहज होना इतना सहज तो नहीं, सहज की पराकाष्ठा हैं सहजो।
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सहजो बाई राजपूताना के एक प्रतिष्ठित दुसर (वैश्य) कुल से संबंध रखतीं थीं। इनके पिता का नाम हरिप्रसाद था। जीवनकाल संभवतय सम्वत् 1800 के आसपास रहा होगा। ये प्रसिद्ध महात्मा चरनदासजी की शिष्या थीं।
सहजो बाई ने अपनी रचनाओं में गुरु को ईश्वर से भी अधिक मान्यता दी है।
सहजो बाई के गुरु कौन थे?🌹
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सहजो बाई के गुरु चरणदास थे। चरणदास इनका प्रारंभिक नाम रणजीत तथा 19 वर्ष की आयु में मुनि शुकदेव से दीक्षा लेने के बाद श्याम चरणदास या चरणदास नाम रखा गया। “चरणदास”जी का जन्म मेवात क्षेत्र के ग्राम डेहरा (अलवर) में मुरलीधर व कुंजो देवी के घर हुआ। ये बचपन से ही भगवद्भक्ति की ओर उन्मुख हो गये थे। निरन्तर भक्तिभावना व ब्रह्म ज्ञान सा के कारण कई वर्षों तक सद्गुरु की खोज में।
🙇🏼♀️सहजो बाई की गुरु भक्ति🌹
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आज सहजो अपनी कुटिया के द्वार पर बैठी है, उनकी गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर परमात्मा प्रकट हुए हैं पर सहजो के अन्दर कोई उत्साह नहीं, कहा सहजो हम स्वयं चलकर आऐ हैं तुम्हे हर्ष नही, सहजो ने कहा प्रभु ये तो आपने अहेतु क्रपा की है, पर मुझे तो आपके दर्शन की भी कामना नही थी । परमात्मा को झटका लगा ऐसा तेरे पास क्या है, जो तू मेरा आतिथ्य भी नही करती। सहजो–मेरे पास मेरा सद्गुरु समर्थ है, मैने तुम्हे अपने सद्गुरु मे पा लिया है, मैं परमात्म तत्व का दर्शन भी करना चाहती हूँ तो केवल अपने सद्गुरु के रूप मे,मुझे आपके दर्शनो की कोई अभिलाषा नही है, यदि मै गुरुदेव को कहती तो वह कभी का तुम्हे उठाकर मेरी झोली मे डाल देते। ये भाव देखकर आज परमात्मा पिघल गया कहा सहजो मुझे अदंर आने के लिए नही कहोगी सहजो कहती है प्रभु मेरी कुटिया के भीतर एक ही आसन है और उस पर भी मेरे सद्गुरु विराजते हैं, क्या आप भूमि पर बैठकर मेरा आतिथ्य स्वीकार करेंगें। तुम जहाँ कहोगी वहाँ बैठेंगें,भीतर तो आने दो प्रभु ने कहा देखा सचमुच एक ही आसन है, भूमि पर बैठ गया ठाकुर, कहा सहजो मैं जहाँ जाता हूँ कुछ न कुछ देता हूँ ऐसा मेरा नियम है,कुछ माँग लो।सहजो कहती है मेरे जीवन मे कोई कामना नही है। प्रभु– फिर भी कुछ तो माँग लो, कहा ठाकुर तुम मुझे क्या दोगे तुम तो स्वयं एक दान हो,जिसे मेरा दाता सद्गुरु किसी को भी जब चाहे दान कर देता है। अब बताओ दान बड़ा या दाता तुमने तो जन्म मरण, रोग भोग मे उलझाया, ये तो मेरे सदगुरु ने क्रपा कर सब छुड़ाया। प्रभु-सहजो आज मेरी मर्यादा रख ले, कुछ सेवा ही दे दे। कहा प्रभु एक सेवा है, मेरे सद्गुरु आने वाले हैं, जब मैं उन्हें भोजन कराऊँ तो क्या तुम उनके पीछे खड़े होकर चमर डुला सकते हो। कथा कहती है प्रभु ने सहजो के गुरु चरणदास पर चमर डुलाया।
विनय का फल सेवा है, गुरुसेवा का फल ज्ञान है, ज्ञान का फल विरक्ति (स्थायित्व) है, और विरक्ति का फल आश्रवनिरोध (बंधनमुक्ति तथा मोक्ष) है।
सेल्फ अवेकनिंग मिशन
शालिनी साही