कर्मबंधन आत्मज्ञानी पर लागू नही होता ऐसा श्री कृष्ण जी ने कहा है और कर्म बंधन को समझने के लिए कर्म के सिद्धांत को समझना होगा।

कर्म का सिद्धांत यह कहता है कि हर कर्म के पीछे उसका कोई ना कोई परिणाम अच्छा या बुरा नियत होता है, जो कर्ता को भोगना ही होता है। कर्म का फल अकाट्य होता है। इसे भोगने ही जीव को चौरासी लाख योनियों में आना पड़ता है। यह कर्ता के मनोभाव और उद्देश्य पर निर्भर करता है।

कर्ता जब किसी फल की आशा से कर्म करता है कि इस कर्म का मुझे यह परिणाम मिले, तो वह कर्मबन्धन में बंध जाता है। अर्थात नतीजे की चाह उसे कर्म के जाल में फंसा देती है। यदि फल की इच्छा के बिना कर्म हो या उस कर्म को परमात्मा को अर्पित कर दें, तो फिर उसका कर्मबंधन निर्मित नही होता है। एकमात्र समर्थ सतगुरूं जीव को इस कर्मबंधन से निकालने में समर्थ हैं।

एक आत्मज्ञानी इस बात को जानता है वह इच्छाओं और फल की आशा से मुक्त होकर कर्म करता है। उसका कर्म केवल जगत के कल्याण निमित्त होता है, इसलिए उन पर कर्म बंधन निर्मित नही होते। उन्हे आत्मज्ञान होता है की कर्ता मैं नही, हमारे भीतर छिपी ईश्वरीय सत्ता ही है। इसलिए उस पर कर्मबंधन लागू नही होते।

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