कर्म अच्छे हो या बूरे, पाप हो या पुण्य, समयानुसार मनुष्य को दोनों के फल मिलते है।
और मनुष्य से जो अहंकार विरहित, बीना मैं भाव से कर्म किए जाते हैं, भीतर अहंकार नहीं है, भीतर मैं भाव नहीं है, तब वे कर्म निष्कर्म होते हैं और उसका फल फिर नहीं मिलता।
फिजिकली, वास्तव में उस निष्कर्म का भी फल मिलता तो है, पर वह उसके लिए बंधन का कारण नहीं बनता।
कर्म बंधनों से मुक्ति का ऐसा है कि, अगर पिछले कुछ सालों में या पास्ट लाइफ में कुछ गलतियां करी है, और आज़ उसपर हम शर्मिंदा हैं, हमे अपनी गलती पर अफसोस है, लोगों की बात छोड़ो लेकिन खुद, खुद को माफ़ नहीं कर पा रहे, भीतर ही भीतर से उस कर्म के लिए परमात्मा से माफी मांगते हैं, तो जब भीतर मे ऐसी स्थिति होती है, तो ऐसी स्थिति में परमात्मा या युनिवर्स हमे माफ़ कर देता है। और यह सत्य है।
कर्म बंधनों से,कर्मो की सजा से छूटने का सबसे अच्छा तरीका है, परमात्मा से भीतर ही भीतर बार बार माफी मांगना। उसका प्रायच्छित करना।
सच्चे मन से माफी प्रार्थना व प्रायच्छित वह अग्नी हैं, जिससे पूराने कर्मो को जलाया जा सकता है।
प्रायच्छित का मतलब है, जो ग़लती की है, उसकी सजा खुद अपनी आप को देना और दोबारा कभी भी वह गलती नहीं करना। कर्मो को काटने का, कर्मो की सजा से छूटने का यही एक आसान तरीका है।
माफी प्रार्थना और प्रायच्छित के बाद, अगर पिछले कर्म सिद्धांत के अनुसार कुंडली में कही एक्सिडेंट लिखा हुआ होता है, तो एखाद खरोंच या थोड़ा बहुत मुक्का मार से आप बाहर निकलोगे।
तब कर्म सिद्धांत के अनुसार कुंडली में अगर बहुत बुरा होनेवाला होता है तो, तो तब आप किसी से अपमानित किए जाओगे, एखाद थप्पड़ से उस बला से बाहर निकलोगे।
मतलब जहां पहाड़ जितना दुःख भोगना लिखा होता है, वहां राई जितना बचता है।
हम जाने अंजाने में हर रोज न जाने कितनी गलतियां करते रहते, किसी को वादे करते रहते हैं, और पूरा नहीं कर पाते। तो कर्म तो बनते ही है। इसलिए हर रोज माफी प्रार्थना और प्रायच्छित के लिए थोड़ी बहुत जन सेवा और सत्कार्य करना जरूरी है।