
मौन यानी विचारों का अंत, शुन्य स्थिती। और ध्यान इस स्थिती तक पहुंचने के लिए किया जाता है।
अंतरबाह्य मौन घटित होना ही समाधी है। ध्यान का अंतिम चरण समाधी होता है, भीतर की पुर्ण शुन्यता, मौन घटित होना होता है। मन शांति के लिए, आंतरिक मौन में उतरने के लिए ही सभी अध्यात्मिक साधनाएं होती है।
मौन मतलब केवल उपर उपर से चुप बैठना नहीं होता, यह भीतर की चुप्पी, शांति है। मौन शब्द कहने के लिए बड़ा आसान लगता है लेकिन, यहां तक पहुंचना बड़ा कठिन काम है।

हम सभी अध्यात्मिक साधक मौन का ही अभ्यास करते हैं। भीतर का, आंतरिक मौन घटित होना सिद्ध अवस्था है। यहां तक पहुंचने के लिए ही हमारे सब प्रयास होते हैं।
सदगुरु भी जब शब्द या ध्यान लगाने के लिए श्रीमुरत देते हैं, इसके लिए ही देते हैं। पहले हम उस पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं, सुरती को शब्द से जोड़ते हैं और फिर अंत में बाकी सब भूल जाते हैं। तब वह जो स्थिती है, वह है मौन।
गुरु का जो शब्द है, उसपर ध्यान लगाने से तब “मैं वह हूं” बाकी रहता है। तब उस मौन में हमारे “मैं कौन हूं” का उत्तर हमें मिल जाता है।
तो ध्यान से मौन घटित होता है। ध्यान मौन तक पहुंचने का रास्ता है। अंत में मौन ही होना है।
मौन, विचार हिन अवस्था, अस्तित्व में एकाकार होना मुक्ती है। और जब-तब भीतर मैं बाकी है, मै कर्ता या मैं कोई एक अलग चीज बाकी है, हूं बंधन है।
मौन यानी भीतर ज्ञअब केवल द्रष्टा, केवल साक्षी बचा। वह है, लेकिन उसमें अब कोई विचार, कोई राग-द्वेष नहीं है। वह है मौन। ध्यान का फल मौन है। तब हम मौन तो होते हैं, लेकिन चेतना में, चैतन्य में नाचते हैं।

जब-तब मैं-मैं, मैं कर्ता, मैं करता हूं, मैंने किया बाकी है, जब-तब मैं और मेरा बाकी है, समर्पण भी नहीं होता और ध्यान भी कितना भी करो नहीं लगता। जब-तब भीतर मैं कर्ता बाकी है, मौन घटित नहीं होगा। समर्पण नहीं होगा।
प्रकृति की तरफ से मैं-मै वाला हमेशा मारा जाता है और मौन वाला तर जाता है। ध्यान हमे मौन तक पहुंचाता है और मौन में हम सीधे सीधे परमात्मा में उतरते हैं, उनकी अनुभूति में जीते हैं। जीवनमुक्त होते हैं।
धन्यवाद।