रोम रोम में रमने वाले राम तुम हो।
कन कन मे बसने वाले कृष्ण तुम हो।
तुम कहां नहीं हो ऐसी जगह तो बताओ?
ऐसी कोई जगह नहीं है कि, जहां तुम नहीं हो। सृष्टि में स्रष्टा बनकर हर जगहों पर मौजूद हों तुम।
और यही तुम्हारी असलियत है।
तुम अपने को जानों तो सही, तुम अपने को पहचानों तो सही।

आकाशीय चेतना तुम हों।
तुम वह हो जो आते न जातें हो।
तुम हर जगहों पर मौजूद हों।
तुम एक होकर भी अनेकों में हो।
और अनेकों में होकर भी एक हो।
तुम बाह्य रुप में अनेक, और भीतर से एक हो।
तुम अद्वैत हो, तुम अद्वितीय हो।
यह एक आश्चर्य है, लेकिन यही तुम्हारी असलियत है।
तुम अपने को जानों तो सही, तुम अपने को पहचानों तो सही।

यह समस्त विश्व तुम्हारा ही पसारा है।
यह समस्त विश्व तुम्हारा ही विस्तार है।
तुम जगत की जड़ हो, तुम जगत का मूल स्रोत हो।
तुम जगत चेतना हो, तुम अनंत हो, तुम्हारा कभी अंत नहीं होता।
तुम्हारा आना जाना नहीं, अनंत का आना-जाना नहीं होता।
तुम ईश्वर हो समझें..!
और यही तुम्हारी असलियत है।
तुम अपने को जानों तो सही, तुम अपने को पहचानों तो सही।

तुम आत्मा हो, तुम ईश्वर हो।
आत्मा कभी मरती नहीं, ईश्वर कही आता जाता नहीं।
तुम नित्य हो, तुम चेतन हो।
तुम आकाश जैसे, तुम आकाशीय, ब्रह्मांडीय चेतना हो भाई..!
तुम अपने को जानों, तुम अपने को पहचानों।
तुम अपने मे जागो और जाओ सदगुरु के पास।
सदगुरु तुम्हे तुमसे मिलाएंगे, सद्गुरु तुम्हे तुम्हारा ही स्वरूप दिखाएंगे।
जाओ जल्दी देर मत करना।
क्योंकि मनुष्य जन्म बार-बार नहीं, यह सिमीत समय और यह सुअवसर बार-बार नहीं।

जब-तक तुम्हें अपने स्वयं का ज्ञान नहीं होता तब तक तुम दो हो। लेकिन जैसे ही तुम अपने स्वयं को, अपनी महिमा को जान जाते हो, तब तुम एक हो जाते हो।
जब तुम अपने को जान-पहचान जातें हो, तब तुम्हारे सिवा यहां कोई कुछ नहीं होता।
तब केवल तुम ही तुम होते हो।
तब द्रष्टा भी तुम और दृश्य भी तुम।
तब रोटी भी तुम और खानें वाले भी तुम होते हो भाई..!
तुम अपने को जानों तो सही, तुम अपने को पहचानों तो सही।

जब अज्ञान हटता है।
जब भीतर विवेक और ज्ञान प्रकाश का जन्म होता है।
जब सदगुरु की कृपा होती है।
तब तुम अपने को देख और जान पाते हो।
तब तुम्हें अपने स्वयं की अनुभूति होती है।
तब तुम अनेकों में एक को देख पाते हो।
गुरु के मार्गदर्शन में अपने को जानने का प्रयास करों।
यह अंतर यात्रा इसके जानकार सदगुरु के मार्गदर्शन में की जातीं हैं।

जब गुरु की कृपा होती है, जब तुम्हें अपने स्वरूप की पहचान होती है।
तब तुम कहते हो “अहं ब्रम्हास्मि” मैं ही वह ब्रह्म हूं।
आत्मा ब्रह्म है, सबकुछ ब्रह्म है।
और तब यह सब मेरा ही पसारा है का बोध तुम्हे होता है।
गुरु बिना आत्मा का ज्ञान नहीं, जाओ गुरु के पास।
और जानों अपने आप को, पहचानों अपनी आप को।

हम ब्रह्म है, हम आत्मा है।
हमारा अस्तित्व आत्मा से है।
पृथ्वी पर के जीव यही उत्पन्न होते हैं और हमारी देह सहित इसी में समा जाते हैं, पर हम नहीं।
यह मैं, यह हम शरीर से अलग है भाई..!
शरीर के भीतर शरीर से अलग रहने वाला अलग है।
वह आत्मा है, वह ईश्वर है और वही तुम हो।
वह आत्मा तुम हो, तुम ब्रह्म हो।
आत्मा का नाम ही ब्रह्म है।
तुम अपने को जानों तो सही, तुम अपने को पहचानों तो सही।

भीतर की यात्रा सदगुरु मार्गदर्शन में, ध्यान धारणा से कि जातीं हैं।
अंतर्मुख होकर अंतर्मुखता से कि जातीं हैं।
वैसे आत्मा का ज्ञान यह गुरुकृपा का ही प्रसाद होता है।
पुर्ण गुरु के शिष्य को आत्मज्ञान होता है।
आत्मा सब जगह मौजूद है।
हम खुद आत्मा है, पर इसका अनुभव गुरु कृपा से, सदगुरु मार्गदर्शन में होगा।
इसलिए “मैं कौन हूं” की यात्रा में सदगुरु सर्वेसर्वा है।
सदगुरु जड़ और चेतन को तुरंत अलग कर देते हैं।
सदगुरु अपने ही भीतर परमात्मा को दिखा देते हैं।
गुरु की शरण में जाओ और अपने स्वयं को जानने का प्रयास करों।
अपनी महिमा को जानों, पहचानों।

आत्मा का ज्ञान ही परमात्मा का ज्ञान है।
आत्मा का ज्ञान ही ब्रह्म का ज्ञान हैं।
आत्मा की अनुभूति ही ब्रह्म की अनुभूति है।
इस आत्मा की अनुभूति में रहना ही ब्रह्मलीन रहना है।
ब्रह्म यानी परमात्मा।
आत्मस्थ, आत्मा की अनुभूति में रहने वाला, जड़ की नहीं, चेतना की अनुभूति में रहने वाला, नित्य निरंतर आत्मा में रमन करने वाला ब्रम्हलीन कहलाता है।
धन्यवाद!

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