
आत्मा का अंत नहीं होता, आत्मा का विकास होता है।

आत्मा प्रभू का रुप है। आत्मा प्रभू का अंश है और फिर भी आत्मा अनंत यात्रा पर है।
आत्मा प्रभू का रुप, प्रभू का अंश होकर भी उसपर चढ़े अज्ञान आवरण, उसपर जमे अहंकार रूपी मैल के कारण वह एक सिमीत क्षुद्र जीवात्मा बनी हुई रहती है। वह अपना एक अलग अस्तित्व मानती है। और इसी अज्ञान-अहंकार के कारण जन्म मृत्यु के धक्के बुक्के खा रही होती है।
अज्ञान और अहंकार के कारण फिर फिर जन्म फिर फिर मृत्यु का दुःख उसके पिछे लगा हुआ है। और जब-तक उसको मनुष्य शरीर नहीं मिलता, उसमें सच्चे सदगुरु, सच्चे मार्गदर्शक नहीं मिलते, इसका का कोई अंत भी नहीं होता।

अज्ञान और अहंकार के कारण वह सिमीत हो चुकी होती है, बंधीं हुईं होती है, अपने ही स्वरुप से दूर हुई वह आत्मा जीवात्मा के रूप में, कपड़ों जैसे शरीर बदलती रहती है।
आत्मा के अनंत यात्रा में शरीर बदलते बदलते लंबे समय के बाद जब उसे मनुष्य शरीर मिलता है और उसमें अगर उसे सच्चे सच्चे सदगुरु मिलते हैं, तो उनके उपदेशों नुसार आचरण करने पर,उनका उपदेश भीतर धारण करने से, पहले वह जीतें जी जिवन मुक्त होतीं हैं और तत्पश्चात मुक्त।

मतलब सदगुरु की उपदेशों को सुन-सुनकर जान-समझकर उसे इसके रियल स्वरुप का बोध होता है। नश्वर और ईश्वर में, सत्य और असत्य में फर्क समझ आता है। तब वह निरिच्छ होने लगती है, उसमें विवेक और वैराग्य की उत्पत्ति होती है। उसी विवेक और वैराग्य के कारण धीरे धीरे वह सभी से, संसार और संसारियों से अनासक्त हो जाती है। शुन्य हो जाती है। और फिर उसके भीतर शुन्य स्थिति होते हीं उसकी यात्रा खत्म हो जाती है।
अंत में वह नष्ट नहीं होती पर, परमशुन्य में परमआत्मा में, अस्तित्व में विलीन हो जाती है।
धन्यवाद।