जिस में कुछ मिलावट ना हो वह शुद्ध और जिस में कुछ मिलावट हो वह अशुद्ध ऐसा तो हम सब जगह व्यवहार में देखते हैं।
आत्मा जो है पहले से शुद्ध है, लेकिन जिस आत्मा के उपर अज्ञान का एक लेप, मैल चढ़ गया उसे फिर अशुद्ध आत्मा कहते हैं।
संसार की, देह और देह संबंधियों की, दृष्य़ जगत की तृष्णा में अटकी हुई, भटकी हुई आत्माएं अशुद्ध आत्माएं हो गयी है।
अब बात करते हैं शुद्धत्मा की,
परमात्मा नित्य शुद्ध है और परमात्मा स्वरूप जो है, जो परमात्मा स्वरूप हो गये है वह भी नित्य शुद्ध है। जैसे की उदाहरण के लिए हमारे गुरुदेव।
शुद्धता का अर्थ है सदा निर्मल चित्त बुद्धि वाले, संसार में रहते लेकिन कमल-पुष्प की तरह संसार से सदा निर्लेप। नित्य निराभिमानी। हमारे गुरुदेव बाहर से सब भक्तो के बीच होते हुए भी अंदर से सदा असंग, पुर्ण वैरागी होते है। वे सब आसक्तियो से पार है, वे शुद्धत्मा है।
शुद्धत्मा यानी जिसे अपना सेल्फ रियलाइजेशन हो चुका है वह व्यक्ति। और जिस ने अभी तक अपनी आप को, अपने स्वयं को नहीं जाना और बाहर बाहर ही भटक रहा है वह अशुद्ध आत्मा है। उसमें अभी अशुद्धियां भरी पड़ी है।
शुद्धत्मा यानी कि जिस ने अपने शुद्ध बुद्ध चेतनसाक्षी को जान लिया। मोह-माया ममता से दूर, केवल कर्तव्य धर्म को निभाते हुए सदा सच्चिदानंद में रहने वाले योगी को शुद्धत्मा कहते हैं।
और सदा अज्ञान में, संसार के कामों में, कनक और कामिनी के पीछे पागल, काम क्रोध लोभ मोह-माया विकारों के चक्र में फंसे हुए को अशुद्ध आत्मा।
जो बाहर भटकता है वह अशुद्ध है और जो अपने सारा-सार विवेक से, अपने गुरु की कृपा, गुरु उपदेश से अपने निजघर पहुंचता है। यानी की अपने “स्व” के पास पहुंचकर अपने स्वयं में स्थिर होता है वह शुद्ध आत्मा है।
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