क्या मानव को कल्याणकारी उपाय और धर्म तथा कर्तव्य के मार्गदर्शन देने वाला परम शक्ति गुरु विवेक दाता एक भगवान है?

समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए ही परमात्मा सतगुरु रूप में आते हैं। गुरु और भगवान अलग नही हैं, दोनो एक ही हैं बस एक परमात्मा निराकार रूप में सब ओर समाए हुए हैं तो गुरु रूप में वही साकार हो जाते हैं। हम जीवों के उद्धार के लिए वो खुद हमारे बीच मानव तन की सीमा में बंध जाते हैं और हमारा उद्धार करते हैं। जैसे पानी, भाप और बर्फ तीनों एक ही हैं पर भौतिक अवस्था अलग होने के कारण भिन्न भिन्न लगते हैं। और जैसे भाप को जानना हो, उसे समझना हो तो निराकार रूप में मुश्किल हो जाता है, पर जब वही बर्फ रूप में ठोस रूप ले लेता है तो उसे छूना, पकड़ना, समझना, जानना आसान हो जाता है। उसी प्रकार परमात्मा को निराकार रूप में जानना, समझना या प्रेम करना बहुत मुश्किल होता है। किंतु जब वही साकार रूप में गुरु बनकर धराधाम पर अवतरित होते हैं तो उनसे प्रेम करना आसान हो जाता है।

साकार गुरु रूप की हम जो भी आराधना, सेवा, प्रेम, पूजा, भक्ति करते हैं वह सीधे परमात्मा को अर्पित हो जाता है। इसलिए तो गुरु को परमात्मा से भी अधिक महत्व दिया गया है क्योंकि गुरु ही वह सेतु हैं जो पापी से पापी आत्माओं को भी परमात्मा के लायक बना उनसे मिलवा देते हैं। परमात्मा, गुरु और जीवात्मा तीनों का भेद खत्म हो जाता है, अद्वैत घटित होता है और ज्ञान की उपलब्धि हो जाती है।

गुरु रूप में परमात्मा अपना प्रेम हमें देते हैं, जिस पर परमात्मा प्रसन्न होते हैं, उसे गुरु रूप में मिल जाते हैं। उसे ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करके उसी आत्मा के सारे अंधकार दूर कर देते हैं।
जीवात्मा तो सदा से परमात्मा का अंश ही है पर अज्ञानता वश खुद को अलग अस्तित्व मान बैठता है, और माया के वशीभूत होकर भटकता रहता है, चौरासी लाख योनियों में।

तो केवल हम जीवों के कल्याण के लिए गुरु आते हैं और ज्ञान, प्रेम, भक्ति, सेवा, सुमिरन, तप, सत्कर्म, सत्संग द्वारा हमारे विवेक चक्षु को जागृत करते हैं और हमारे अहंकार को मिटाते हैं। जहां अहंकार मिटा वही परमात्मा उपलब्ध हो जाते हैं।

इसलिए गुरु भगवान है, भक्त भी वही है, संसार भी वही, माया भी वही, ज्ञान भी वही, प्रकाश भी वही, अंधकार भी वही, सब ओर वही समाए हुए हैं, सगुण और निर्गुण रूप में। उस कण कण में बसने वाले गुरु और परमात्मा को सदा नमन और शुकराना है उनका।

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