आत्मा परमात्मा का अंतर
आत्मा सांसारिक पीड़ा से आहत होती है, परमात्मा सर्व व्याप्त अलौकिक शक्ति है, जिसका सीधा संबंध सम्पूर्ण ब्रम्हांड से है, उसके दुख और सुख समस्त संसार को झेलना पड़ता है।
🛐 आत्मा ने पूछा: यदि हम आत्माओं के जीवन का उद्देश्य इस सांसारिक जन्म मरण के चक्र से छूटना ही है तो फिर हमें यह मानव जीवन मिला ही क्यों है?
🕉 परमात्मा ने कहा: संघर्ष करने के लिए।
🛐 आत्मा ने पूछा: संघर्ष! परंतु वह किसके लिए?
🛐 आत्मा ने पूछा: परंतु आप में विलीन तो हम पहले भी थे, फिर हमें नए सिरे से संघर्ष करके यह सब करने की क्या आवश्यकता है?
🕉 परमात्मा ने कहा: जिस प्रकार से एक बच्चा स्कूल गए बगैर केवल घर पर ही रहते हुए अपनी पढ़ाई को पूरा नहीं कर सकता है, ठीक उसी प्रकार से एक आत्मा भी सदा मुझ में विलीन रहकर अपने सारे आत्मिक पाठों को नहीं सीख सकती है।
उसे प्रेम, क्षमा, दया, करुणा, धैर्य, शांति, सद्भावना इत्यादि जैसे अनेकों पाठ जोकि वह एक मानव तन को धारण किए बगैर नहीं सीख सकती है को सीखने के लिए इस धरती पर आकर जीवन जीना ही पड़ता है।
परंतु जब कोई आत्मा अपने जीवन में आने वाले हर अच्छे बुरे अनुभवों से गुजर कर सफलतापूर्वक अपने सभी पाठों को सीख लेती है, तब वह पुनः मुझ में विलीन होने के योग्य हो जाती है। इस प्रकार से वह आत्मा जन्म मरण के चक्र से सदा के लिए मुक्त होकर अमरता को प्राप्त कर लेती है।
🕉️आत्मा ही परमात्मा का अंश है।
आत्मा की पहचान कर के सत्य मार्ग पर चलने की बुद्धि हमें मिल जाये ..तभी मानव जीवन की सार्थकता है …साधारणतया बुद्धि के दो रूप होते हैं ..एक कुबुद्धि जो हमें स्वार्थ, मोह, लोभ और पाप कर्मो की और आकर्षित करती है ..दूसरी सुबुद्धि जो हमें अपने हित के कार्य करने को प्रेरित करती है …और पापकर्मो से बचाती भी है…
इस से भी आगे होती है मेधाबुद्धि जो अच्छे और बुरे कार्यों में भेद कर पाने की क्षमता विकसित करती है..
मेधाबुद्धि से भी आगे है प्रज्ञा जो विवेकानुसार लोकहित के कार्य की प्रेरणा देती है…इसमें तमोगुण का नाश हो जाता है..और मनुष्य अपने स्वार्थ को नहीं देखता….
प्रज्ञा से भी विकसित स्तर पर प्रतिभा है…इसे आत्मिक दृष्टि भी कह सकतें हैं…इस विलक्षण बौध्दिक शक्ति केआधार पर मनुष्य संसार के गूढतम रहस्यों को जान लेता है…
बुद्धि के सर्वोतम रूप को कहतें हैं, ऋंतभरा बुद्धि…इस में केवल सतोगुण ही शेष रह जाता है…
यह सात्विक बुद्धि सदा एक रस रहती है…और सत्य को पहचान कर आचरण में धारण अवं पालन करने की क्षमता प्रदान करती है..
इस के प्रकाश में प्रत्येक वस्तु बिलकुल यथावत दिखाई देती है … तथा भ्र्रम और संशय समाप्त हो जाता है …. .
🕉️आत्मा और परमात्मा में क्या अंतर है?
🔺”चुम्बक लोहा प्रीति ज्यों, लोहा लेत उठाय”
चुम्बक जो विशुद्ध लोहे से बनाया जाता है। चुम्बक लोहे (अपने ही अंश) को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है, अन्य धातुओं को नहीं। चुम्बक लोहे से और लोहा चुम्बक से इस प्रकार चिपक जाता है कि दोनों को अलग करने के लिए चुम्बक की शक्ति के अनुरूप ही बल का प्रयोग करना पड़ता है। वहीँ चुम्बक लोहे की ही कई किस्मों को अपनी ओर आकर्षित नहीं करता है, क्योंकि जंग लगा लोहा, स्टील या अशुद्ध लोहा आदि के कणों के मूल गुणों में परिवर्तन हो जाता है। विजातीय (अशुद्ध) तत्वों के गुणों को ग्रहण करने या संगति से संस्कारित होने के कारण ये विकार ग्रस्त हो गये होते हैं। इसी प्रकार परमात्मा (चुम्बक) और आत्मा (सामान्य लोहा) में सम्बन्ध है।
सद्गुरु कबीर साहेब से परमात्मा के बारे में किसी ने प्रश्न किया कि, “परमात्मा एक है या अनेक और .जीव (आत्मा) से उसका क्या सम्बन्ध है। इस पर सद्गुरु कबीर साहेब कहते हैं:-
🔺”एक कहूँ तो है नहीं, दो कहूँ तो गारि ।
जैसा है वैसा ही है, कहैं कबीर विचार।।”
अर्थात परमात्मा एवं आत्मा एक नहीं है और परमात्मा एवं आत्मा अलग-अलग भी नहीं है, क्योंकि जैसी आत्मा है वैसा ही परमात्मा है और जैसा परमात्मा है वैसी ही आत्मा है। इनमें कोई अंतर नहीं है। सद्गुरु कबीर साहेब कहते हैं कि विचार करिये अर्थात यह चिंतन योग्य विषय है।
चुम्बक लोहे को अपने जिस चुम्बकीय बल (अदृश्य डोर या शक्ति) से अपनी ओर खींचता है, उसे “भगवान की कृपा, गाड लव, अल्लाह का नूर आदि” कहते हैं। और लोहे के खंड (आत्मा) चुम्बक (परमात्मा) के चुम्बकीय गुणों से (अपनी शुद्धता के अनुरूप) जो प्रभावित होने का गुण है वही भक्ति है तथा चुम्बकीय बल की अलख डोर जिसे सद्गुरु कबीर साहब ‘अधर तार कहते हैं’ , को पकड़कर चुम्बक (परमात्मा) की और बढने की क्रिया को ‘साधना’ कहते हैं । सद्गुरु कबीर साहब कहते हैं-
🔺”प्रेम जगावे विरह को, विरह जगावे जीव ।
जीव जगावे पीव को, वही जीव वही पीव ।।”
आत्मा (लोहे का खंड) जब पाँच तत्व के संयोग से शरीर धारण करती है, तब तीन गुणों के प्रभाव से विकार ग्रस्त (पतित) होने लगती है और परमात्मा से दूर होने लगती है| जैसे -जैसे यह आत्मा क्रमशः छः प्रकार की देह ” (१) हंस (२) कैवल्य (३) महाकारण (४) कारण (५) सूक्ष्म और (६) स्थूल” को अपनी बढती अशुद्धता के कारण जैसे-जैसे हंस देह से गिरते क्रम में स्थूल शरीर को धारण करती है वैसे -वैसे ही आत्मा -परमात्मा के बीच की दूरी बढ़ जाती है, और आत्मा स्थूल देह में परमात्मा के अनुभूति को भूल ही जाती है | देह के शुद्ध से अशुद्ध और अशुद्ध से शुद्ध करने की क्रिया को संस्कार एवं विधि को कर्म कहते हैं| धर्म ग्रंथो में जन्म-मरण, स्वर्ग-नर्क और पुनर्जन्म तथा विभिन्न योनियों में आवागमन में संस्कार एवं कर्म के प्रधान भूमिका को स्वीकार किया गया है| अतः संस्कार एवं कर्म ही देह की शुद्धता (आत्मा की पवित्रतता को निर्धारित करते हैं, जिससे आत्मा को परमात्मा के अनुकूलन की अनुभूति प्राप्त कर सके | किन्तु आत्मा बिना ‘अधर तार’ को पकडे ( बिना साधना किये ) परमात्मा तक नहीं पहुच सकती|
परमात्मा से आत्मा का मिलाप करने में सद्गुरु कि दया की आवश्यकता होती है, जो सीधा एवं सुगम (सहज) मार्ग दिखलाते हैं, और उसके योग्य बननें के लिए समुचित संस्कार देते हैं| नाना धर्मं, पंथ एवं संप्रदाय केवल जीव (शरीरधारी आत्मा) को संस्कारित कर परमात्मा से मिलन का मार्ग दिखाते हैं | गुर अपने शिष्य को वही संस्कार एवं मार्ग दे पाते हैं, जिसके वे स्वयं राही हैं, एवं जितनी उनकी अपनी पहुँच है| जीव जो इस स्थूल शरीर में आगया है; अपने को पुनः परमात्मा से परिचय करने के लिए जब उद्धत होता है, तब सद्गुरु की खोज करता है| सद्गुरु की खोज आसान कार्य नहीं है| किन्तु सद्गुरु के मिल जाने पर परमात्मा से साक्षात्कार अवश्य ही सुगम हो जाता है| परमात्मा को पहचानने के लिए पहले अपनी ही आत्मा को पहचानना होगा| क्योंकि जब तक हम आपनी आत्मा को नहीं पहचानेगें तो उसके समर्थ रूप को कैसे पहचान पाएंगे ? सद्गुरु कबीर साहब कहते हैं –
🔺”आतम चिन्ह परमातम चीन्हें, संत कहावै सोई |
यह भेद काया से न्यारा, जानै बिरला कोई ||”
जहाँ स्थूल शरीरधरी आत्मा को अशुद्धि के कारण परमात्मा की अनिभुति नहीं होती वहां सद्गुरु के चेताने पर जागृत जीव की आत्मा चेत जाती है| सद्गुरु जीव की सुरति को अधोमुख से मोड़कर उर्ध्वमुख कर देते हैं| सुरति जो आत्मा को परमात्मा का दीदार बिना किसी संशय के कराती है, इस पर सद्गुरु कबीर साहब कहते हैं
“हम तो मूल सुरती हैं, तुम हो मेरे वंश |
🔺हम तुम पलक हजूर के, दोनों साहब के अंश ||”
उपरोक्त साखी में साहब पुनः स्पष्ट करते हैं, की हम दोनों हजूर (परमात्मा) के अंश है| इसलिए कबीर साहब ने कहा हैं-
“चुम्बक लोहा प्रीति ज्यों, लोहा लेत उठाय |
ऐसा शब्द कबीर का, काल से लेत छुड़ाय |