एक सच्चा आत्मज्ञानी नित्य जागा हुआ, अपने ही वीरागता की अनुभूति में रमने वाला, शांतमन व समाधानी, अपने मे ही पूर्ण होता है। उसे अपने खुशी के लिए किसी बाहरी वस्तुओं की आवश्यकता नहीं होती।
एक सच्चा आत्मज्ञानी मंदिर मस्जिद के चक्कर नहीं काटता। उसका मंदिर उसका अपना ह्रदय होता है। उसकी आत्मा ही उसका ईश्वर है। वह उसी की पूजा में, उसी की ध्यान में, उसी के चिंतन में लीन रहता है। वह पूजा आरती करता है तो वह एक अपनी आत्मा की और एक जिन्होंने उसे अपनी आत्मा से, अपनी आप से मिलाया उस एक अपने सदगुरु की।
एक सच्चे आत्मज्ञानी का मन नित्य शांत सच्चिदानंदमय स्वरूप अवस्था में रहता है, उसके लिए स्री पूरष लिंग भेदभाव नहीं रहता। वह सर्वत्र एक सर्वव्यापक आत्मा को ही देखता है। उसके लिए छोटे बड़े, गरीब-श्रीमंत, अपने-पराए सब समसमान होते हैं। उसके राग और द्वेष समाप्त हो जातें हैं। वह सारे सृष्टि का और सृजनहार का प्रेमी तो होता है, पर उसे व्यक्तिगत किसी से प्रेम या इर्ष्या या वैर नहीं होता।
एक सच्चा आत्मज्ञानी आत्मज्ञान की अंतिम अवस्था में अपने गुरु को भी वह चैतन्य स्वरूप में देखता है। गुरु का दर्शन भी उसे अपने ही भीतर अपने ही हृदय में चैतन्य स्वरूप में होता है। उसे आत्मा, परमात्मा और सदगुरु एक है की अनुभूति होती है। अब उससे लिए सभी जड़ देह प्रकृति है, चाहें अपना हो, अपने सदगुरु का हो, या अन्य किसी का।
आत्मज्ञान की अवस्था में उसकी बाहरी भगवान की ख़ोज समाप्त हो जाती है। उसके लिए उसके आत्मज्ञान के उपदेश सदगुरु और उसकी आत्मा एक ही भगवान है। वह मैं और मेरा से, सभी कर्म-बंधनो से, आसक्तियों और विषय-वासनाओं से, संस्कारों से मुक्त होकर नित्य आत्मचिंतन में रत रहता है।
आत्मज्ञानी सच्चा अध्यात्मिक होता है, आत्मा के, आत्मस्वरुप के अनुभूति में रहने वाला, शांति के अनुभूति में रहने वाला, अकेलेपन की अनुभूति में रहने वाला, द्रष्टा भाव में ज़ीने वाला होता है।
वह अपने झूठे “मैं” को त्यागकर अपने”है” भाव में “स्व” भाव में ज़ीने वाला होता है। उसकी अवस्था पाप और पुण्य के परे की होती है। वह निर्विचार निर्विकार निरहंकारी शांत मन होता है, उसके लिए स्व-धर्म है स्वयं के अनुभूति में रहना, अपने “स्व” के अनुभूति में रहना।
अब उसके लिए फ़र्ज़, जिम्मेदारी, कर्तव्य कुछ भी नहीं रहते। लेकिन फिर भी निस्वार्थ भाव से वह जगत कल्याण के लिए कुछ करता रहता है। और अपने आत्मज्ञान की मस्ती में जीता है। उसे किसी से कोई उम्मीद नहीं होती, या वह किसी से कोई प्रतिफल नहीं चाहता। उसके सभी व्यवहार निस्वार्थ होते है।
आत्मज्ञानी एक छोटे बच्चे जैसा निष्कपट, निष्पाप, और दयालु होता है। दयालु वृत्ति, शीतलता उसका स्वभाव है। उसके पास जाने से लोगों को शांति मिलने लगती है। उसके लिए कुछ करना और न करना सब समसमान है, फिर भी लोक कल्याण हेतु वह कुछ करता रहता है।
आत्मज्ञानी समाज के नियमों पर नहीं चलता, उसके अपने बनाए नियम होते हैं। उसे भीतर से, अपने भीतर के सद्गुरु से जो ज्ञान प्रस्फुरित होता है, भीतर के सद्गुरु से जो मार्गदर्शन मिलता है उसके उपर, उन नियमों पर वह चलता है।
आत्मज्ञानी किसी को प्रसन्न रखने के चक्कर में नहीं पड़ता। वह किसी से कोई मान-पान प्रतिष्ठा नहीं चाहता। उससे कोई प्रसन्न रहें या ना रहे उससे उसे कोई लेना-देना नहीं होता। वह इन सभी भावों से मुक्त होता है, और सदा अपनी आत्मसाधना में, अपने आत्माआनंद में तन्मय, तृप्त रहता है।
आत्मज्ञानी बेशक बाहर दुनिया की भीड़ में रहता है, पर अंतर में अकेला बन चुका होता है। वह किसी को अध्यात्मिक प्रेरणा ना दे तो भी उसके आचरण व्यवहार से, उसके जीवन से निरंतर अध्यात्मिक प्रेरणा प्रस्फुटित होती है।
लोग आत्मज्ञानी को गुरु मानने लगते हैं, लेकिन वह अपने को गुरु नहीं मानता। तरु फल देता है, उसका स्वभाव है देना। तरु फल देकर किसी को ऋणी नहीं बनाता। नदी जल देकर किसी को ऋणी नहीं बनाती। आत्मज्ञानी भी प्रतिफल से मुक्त होता है, लोगों को सही पथदर्शन करना उसका सहज स्वभाव है।
आत्मज्ञानी किसी पर कृपा या अवकृपा भी नहीं करता। वह नित्य खुद तनावमुक्त, इच्छामुक्त, शत्रु मित्र भाव से मुक्त, स्व-पर भाव से मुक्त, श्रेष्ठ अश्रेष्ठ भाव से मुक्त अवस्था में रहता है, और दूसरों को भी वही राह दिखलाता है।
आत्मज्ञानी किसी से प्रभावित नहीं होता और किसी को प्रभावित करने का प्रयास भी नहीं करता। वह अपने मे रहता है।
इसतरह की अनेकों बातों से पता चलता है कि व्यक्ति सच्चा आत्मज्ञानी है। अगर इसतरह की क्वालिटीज़ हमारे भीतर हैं तो हमें आत्मज्ञान हुआं हैं, अन्यथा नहीं।
धन्यवाद!