जन्म और मृत्यु का कर्म से बहुत गहरा संबंध है। कर्मों के कारण ही जन्म और मृत्यु का खेल चलता रहता है। कर्म वह कारक है जो इस जन्म और मृत्यु को संचालित करता है। यदि कर्म ना हो तो जीवात्मा को जन्म लेने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। और जन्म नही तो मृत्यु का सवाल ही नही उठता।

परमात्मा से विलग होकर जीवात्मा माया के वशीभूत हो जाती है और विकारों के अधीन वह भटकते रहती है। विकार अर्थात् वासनाएं, इच्छाएं, काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार, ही उसे कर्म करने को प्रेरित करती हैं। जिसके अधीन वह मोहग्रस्त होकर अच्छे बुरे सभी कर्म करता है। और जीव जब कोई कर्म करता है, तो वह उसका कर्ता बन जाता है और उसका फल भोगने के लिए बाध्य होता है। और उसके फल भोगने ही वह बार–बार जन्म लेता है और मरता है।

“पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजथरे शयनम्'” अर्थात् कर्मों में आसक्ति और कर्तापन के भाव के कारण जीव जगत में बार-बार जन्म और मृत्यु और बारम्बार माता के गर्भ में निवास के दुष्चक्र में फंसा रहता है।

और ऐसे ही कर्मों के ढेर उसे फल भोगकर काटने होते हैं, पर जीव के लिए एक जीवन या जन्म इसके लिए पर्याप्त नहीं होता, अतः उसे लाखों जन्म भी लग जाते हैं, पर कर्मों का ढेर खत्म नहीं होता, क्योंकि फल भोगने के साथ वह नए कर्म भी करता जाता है। जो उसे जन्म लेने को मजबूर कर देते हैं।

यदि कर्मों का खाता क्लियर हो जाए तो ही जीव जन्म–मृत्यु के दुखद चक्रवहूह से बाहर आ सकता है। इसके अलावा सतगुरु या परमात्मा की शरण में आने पर उसे वह आसान रास्ता मिल जाता है कि अपने कर्मों के बोझ से वह मुक्त हो सकता है। प्रेम, ज्ञान, भक्ति, सेवा, परमात्मा का पल पल सिमरन और मुक्ति के लिए प्रार्थना, सत्कर्म द्वारा वह कर्मजाल को काट कर उससे बाहर आ सकता है। ज्ञान और विवेक द्वारा जीव अपने जीवन को साध सकता है और अपना परम कल्याण कर सकता है।

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Sanjiv Malik
Life Coach, Motivational Speaker, writer, Spiritual Advisior & Hypnotherapist.

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