प्रारब्ध यानी पिछले कर्मफलों का आज़ के वर्तमान जीवन में कुछ अच्छा और कुछ बुरा जो परिणाम आया है वह। प्रारब्ध मतलब जो अच्छा या बुरा आज़ हम भोग रहे हैं, यह हमारे पुराने कर्मो का हिसाब किताब है, और इसी को प्रारब्ध कहते हैं।

मनुष्य को प्रारब्ध या भाग्य को पुरी तरह से समझने के लिए सर्व प्रथम कर्म और अकर्म, कर्म के अकाट्य सिध्दांत को समझना होगा।

पुराने संचित कर्मों के प्रतिफल से हमारा वर्तमान प्रारब्ध बनता है। प्रारब्ध मतलब पिछले जन्म या पिछले जीवन में हमारे ही द्वारा किये गये कर्म भोग बनकर इस जीवन में हमारे सामने आये है, यही है प्रारब्ध।

कर्म का अकाट्य सिद्धांत के आधार पर प्रकृति चलतीं है।‌ कर्म के अकाट्य सिद्धान्त के हिसाब से पिछले जन्म या जीवन में जो शुभाशुभ कर्म घटित हुए वे वर्तमान में प्रारब्ध बनकर सामने आएंगे ही आएंगे। और उन्हें भोगकर ही नष्ट किया जाता है।

हमारा आज़ का भाग्य या प्रारब्ध हमारे ही अतीत का परिणाम होता है। आज़ वर्तमान में हम जो भी करेंगे या हमसे जो कर्म घटित होंगे उससे हमारा कल का प्रारब्ध या भाग्य बनेगा।

हमारे प्रारब्ध के या भाग्य के विधाता, रचयिता यानी हमारा भाग्य लिखने वाले हम खुद होते हैं। हमारा आज़ जो है हमारे कारण ही है। हमारा कल यानी भविष्य का प्रारब्ध आज़ हमारे हाथ में है, हम जैसा चाहिए वैसा उसे लिख सकते हैं।

सदगुरु या संतों-महापुरुषों के जीवन में आने से, उनकी सेवा और आशिर्वाद से प्रतिकुल, दुःखमय, दुःखदाई प्रारब्ध थोड़ा हलका होता है।

पिछली गलतियों के कारण जिनका आज़ का प्रारब्ध बहुत ख़राब है, ऐसे लोगों को और यह सबकों जरूरी है कि गुरु और गाय की सेवा की जाएं। गुरु की कृपा और गाय के आशीर्वाद से बुरे से बुरा प्रारब्ध नष्ट हो जाता है। कर्म भाग्य ने माथे पर लिखें अशुभ दृष्टअक्षर शुभ हो जातें हैं, बहुत हलके हो जातें है।

संत-महापुरुष कहते हैं कि पिछ्ला प्रारब्ध जो है उसे भोगकर खतम करों। और नये कर्मा के बारे में सचेत रहो। संत तुलसीदास जी रामचरित मानस में लिखते है कि,

“करम प्रधान बिस्व करि राखा।
जो जस करइ सो तस फ़लु चाखा।।”

कर्मों से ही प्रारब्ध बनता है। जो जैसे करता है वह वैसा ही फ़ल काटता है। जो जैसे कर्म करेगा उसका प्रारब्ध भी वैसा ही होगा।

हमे अगर भविष्य में हमारे भाग्य को अच्छा बनाना है तो आज़ समस्त अशुभ कर्मों को त्यागना होगा, शुभ कर्मों का सहारा लेना होगा। और जिन्हें परमात्मा को पाना है उन्हें पुराने कर्मफल यानी जो प्रारब्ध सामने आया है, उसे चुपचाप बिना शिकायत किए भोगकर नष्ट करना होगा। और आज़ के कर्मों को अकर्म में बदलना होगा। अकर्म यानी निश्काम कर्मयोग।

ईश्वर परायन होकर, अनासक्त होकर, एक साधना समझकर, निश्काम कर्मयोग को अपनाकर कर्म करेंगे तो भविष्य में प्रकृति की तरफ से जो भी प्रारब्ध या भाग्य लिखा जाएगा वह अति शुभ और अनुकूल होगा। तब परमात्मा को पाना भी आसान होगा।
धन्यवाद!

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