जहाँ पर सत्संगी अपने अवगुणों को देख कर सुधारने की कोशिश करता है और उसकी कोशिश ही उसे एक दिन गुरमुख बना देती है।हमारा खुद का सुधरना भी किसी सेवा से कम नहीं है। ये भी एक बन्दगी है।
अपने प्रभु की खुशी के लिए सतसंग जरूरी है। बरे कामों को मिटाने के लिए सेवा जरूरी है। आत्मा की शांति के लिए सिमरन जरूरी है। चौरासी से मुक्ती के लिए नाम जरूरी हैं।
सत्संग की रोशनी में आने से स्वयं अनुभव कर रहे होंगे कि इससे पहले जीवात्मा की क्या हालत थी और सत्संग में आने से क्या परिवर्तन हुआ। यह जीव मानव शरीर को पाकर भी मानव कहलाने का अधिकारी नहीं। कारण क्या कि इस सत्संग की रोशनी नहीं मिली। और माया का आवरण दूर नहीं हुआ, विषय विकारों से छुटकारा नहीं पाया। इसलिए इसकी गणना कुछ साधारण प्राणियों में हो गई। सत्पुरुषों के वचन है –
निद्रा भोजन भोग भय, यह पशु पुरुष समान।
नरन ज्ञान निज अधिकता, ज्ञान बिना पशु जान।
नींद, भोजन, भोग और भय- यह सब चीजें पशु – पक्षियों के अंदर भी विद्यमान है। यदि इंसान भी इन्हीं में ही ग़लतान रहा तो फिर इसमें क्या विशेषता हुई? इसकी विशेषता तो यह थी कि आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता। नीच से ऊँच बन जाता। इसके अंदर अधम श्रेणी के गुण समाप्त हो जाते और विशेष रूप से इसमें उच्च व नेक गुण उत्पन्न हो जाते। यह सब कब हो सकता है? जब इंसान सत्पुरुषों की संगति में आना आरंभ कर देता है।
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शालिनी साही
सेल्फ अवेकनिंग मिशन