सतयुग यानी सत्यव्रता, सत्यवादी, देवताओं जैसे, ऋषि मुनियों जैसे तप और ध्यान-धारणा करने वाले ईमानदार, नेक, धर्म का पालन करने वाले, तपस्या करने वाले लोगों का युग। सतयुग के बारे में ऐसा हम कह सकते हैं।
दोस्तों! सतयुग का वर्णन बहुत से लोगो ने किया तो है, लेकीन वास्तव में सतयुग के रहस्यों के बारे में सत्य कोई नहीं जानता। ऐसी गुढ़ रहस्यों वाली बातें केवल पूर्ण आत्मज्ञानी, आत्मसाक्षात्कारी, त्रीकालज्ञानी परमात्मा स्वरूप महापुरुष ही जानते हैं। और जो जानते हैं वे बोलते नहीं, यहां यही अड़चन है।
देखो भाई युग युग होता है। कोई भी युग न कलियुग होता है न सतयुग। नकारात्मक लोगों के लिए सदा कलियुग होता है और सकारात्मक, संतों जैसे लोगों के लिए सदा सतयुग।
ऐसा कोई युग नहीं होता जिसमें सब की सब अच्छे लोग हो, और ऐसा भी कोई युग नहीं होता जिसमें सभी बुरे लोग हों। युग कोई भी क्यों न हो बूरे सदा कलियुग में जीते है और भले सदा सतयुग में।
हर युग में कुछ भले लोग होते हैं और कुछ बूरे लोग भी। बस फर्क थोड़ा कम या ज्यादा का होता है।
अभी कलियुग की शुरुआत हैं, इसलिए थोड़े बूरे, अनैतिक, अधोगति में जाने वाले लोगों की संख्या बढ़ गई है। यह संख्या पहले भी थी लेकिन बहुत कम, बिल्कुल ना की बराबर, लेकिन थी जरूर।
लोग कहते हैं तब कोई भी पापी नहीं था, तब कोई भी अधर्मी नहीं था। जरा सोचो भाई! और अपने विवेक का इस्तेमाल करों।
तब सब जगहों पर जगह ही जगह, जंगल ही जंगल थे। तब कुछ खरीदना नहीं पड़ता था क्योंकि सबके पास अपनी अपनी जमीनें बहुत ज्यादा थी और लोकसंख्या कितनी कम।
तब स्कूल कालेज नहीं थे, न्यूजपेपर मोबाइल फेसबुक युटुब कुछ भी तो नहीं था। तब फिल्में नहीं थी, हीरों हिरोइनें नहीं थे। यहां तक की लाइटें भी नहीं थी। ऐसी बहुत सी बातें न होने के कारण और लोकसंख्या के कमी के कारण लोग लड़ते झगड़ते नहीं थे। प्रकृति के सान्निध्य में रहते थे, प्राकृतिक खाना खाते थे तो विकारों के उत्पत्ति का कोई कारण ही नहीं था।
ऐसे और भी बहुत से कारणों से पहले लोग देवताओं जैसे थे, ऐसा हम कह सकते हैं।
जहां विषय और वासनाएं होती है, वहां अनैतिकता पनपतीं है, वहां चरित्रहनन होता है। और बहुत ज्यादा विषय वासनाओं का भड़कना ही आसुरी वृत्ति है। और आज़ के कुछ लोगों के साथ वही हो रहा है। क्योंकि आज़ सब जगहों पर विषय वासनाएं भड़काने वाली चीजें उपलब्ध है।
अगर हम सब ठान ले तो खुद में सकारात्मक, सात्विक बदलाव लाकर, नैतिकता को, मानवतावादी धर्म को अपनाकर, फिर से ईश्वराभिमुख होकर अभी कलियुग को सतयुग में बदल सकते हैं।
अगर हम ठान ले तो सेवा-सहकार्य परोपकारी-मददगार वृत्ति को अपनाकर, अपने भीतर के दुर्गुणों को हटाकर, सद्गुणों को अपनाकर अभी कलियुग को सतयुग में बदल सकते हैं।
देवताओं जैसे, संतों जैसे, सतयुगी लोगों जैसे लोग अभी भी इस धरती पर बहुत सारे हैं। अभी पूरी तरह से कलियुग नहीं आया।
मैं तो कहता हूं कि अब-तक के जितने भी युग हुए हैं, सबसे अच्छी और विकसित स्थिति अभी और इस वक्त है। हम सत्य को स्वीकार नहीं करते और पहले के लोग बहुत अच्छे थे, अभी के बहुत बूरे है ऐसा कहते रहते हैं। लेकिन हर युग में कुछ अच्छे और कुछ बूरे लोग होते हैं जरुर।
चेतना विकास धीरे-धीरे होता है और, जीवात्मा का पतन भी धीरे-धीरे।
धन्यवाद!