

शरीर मरता है, पर उसके भीतर का जीवात्मा नहीं मरता। शरीर के मृत्यु के बाद आत्मा या जीवात्मा शरीर से अलग होता है, फिर भी उसके भीतर एक छाया शरीर मौजूद रहता है। इसलिए वह अपने मृत शरीर के आसपास ही मंडराता रहता है। और अपने ही मृत शरीर को देखता रहता है।
वह उस शरीर में पुनः प्रवेश नहीं कर सकता। पर सत्तर ऐंसी साल उस शरीर में रह चुका होता है। इसलिए, शरीर के मोह के कारण अपने ही मृत शरीर को देखते रहता है। जैसे की वह अन्य किसी और के शरीर को देखता हो। और इसलिए कभी-कभी तुरंत शरीर को छोड़कर नहीं जाता।

कभी-कभी तो उसे विश्वास ही नहीं होता की उसकी मृत्यु हुई है। शरीर की मृत्यु के बाद जब उसे दाह संस्कार के लिए ले जातें हैं, तो वह भी पीछे-पीछे अपने ही अर्थी के साथ-साथ स्मशान तक चला जाता है। अपने ही शरीर को जलता हुआ देखकर उसका भ्रम टूट जाता है। तब कोई कोई आत्माएं दाह संस्कार करने पर अपने आगे की यात्रा पर निकल पड़ती है। और इसलिए शरीर को गाड़ने की जगह उसका दाह संस्कार किया जाता है। और उसके लिए दाह संस्कार करना ही सही होता है।
शरीर के मृत्यु के बाद भी कुछ जीवात्माओं का उसके अपने परिवार जनों से मोह बना रहता है। उस मोह के कारण कुछ आत्माओं को आगे की यात्रा पर निकल पड़ने में थोड़ा समय लगता है।

कुछ आत्माएं मृत्यु के तुरंत बाद नया गर्भ ख़ोज लेती है। कुछ तेरा दिन तक घर में रहती है, कुछ एक वर्ष या उससे भी अधिक समय तक घर में या आसपास रह सकतीं है।
गरुड़ पुराण के अनुसार जीवात्मा तेरा दिन तक घर में रहती हैं और फिर दसवें दिन उसका पिंड दान करके तेरावे दिन उसे विदाई दी जाती है। और इसलिए मृत्यु के बाद गरुड़ पुराण का पाठ करने की प्रथा है। ताकि तेरा दिन तक घर में निवास करने वाली वह जीवात्मा सुन सकें, उसे अशरीरी दुनिया का पता चल सके। और वह अपने आगे की यात्रा पर निकल सके।

धन्यवाद!
Very informative