धर्म साधन है, और अध्यात्म साध्य।

“अध्यात्म”

आध्यात्म का अर्थ आत्मा से होता है।

अकेलेपन की अनुभूति अध्यात्म है।
आत्मस्वभाव की अनुभूति, केवल अपने “स्व” की अनुभूति अध्यात्म है।

अंतरिक निस्तरंग, तरंग रहित अनुभूति, अंतरिक अकेलापन अध्यात्म है।
ध्यान-साधना से यह अंतरिक अकेलापन सधता है।

अध्यात्म अक्रिया है, अध्यात्म में कुछ करना नहीं होता। अध्यात्म बस भीतर का साक्षी है, द्रष्टा है।

अध्यात्म वस्तु नहीं, अध्यात्म विचार नहीं, अध्यात्म हमारी वैयक्तिक, हमारे अस्तित्व की अनुभूति हैं।

अध्यात्मिक विचारों का अदान प्रदान होता है, लेकिन अध्यात्म का अदान प्रदान नहीं होता। अध्यात्म सबकी प्राकृतिक बपौती है। अध्यात्म का कोई प्रवर्तक नहीं होता, अध्यात्म का पथदर्शक होता है। जब राम और कृष्ण, बुध्द और इसा मसिहा नहीं थे, तब भी अध्यात्म था और जब पृथ्वी पर का सब खतम होगा तब भी अध्यात्म रहेगा।

कुछ करना अध्यात्म नहीं है, कुछ नहीं करना अध्यात्म है। कुछ करने से अध्यात्म फलित नहीं होता, करना छूटने से अध्यात्म फलित होता है।

अध्यात्म की आधारशिला कुछ नहीं करना है, और व्यवहार की आधारशिला है कुछ करना।

करना छूटने की प्रक्रिया को ध्यान कहते हैं।

ध्यान में पहले शुरू शुरू में करना छोड़ने का अभ्यास किया जाता है, बाद में आगे चलकर यह स्वत: छूट जाता है। कुछ करना छूटने पर जो अनुभूति होती है वह है आत्मज्ञान, अध्यात्म की अनुभूति।

अध्यात्म में कोई नियम नहीं होते, और धर्म नियमों से बंधा होता है।

बेशक सब नियम व्यवहारिक होते हैं। अध्यात्म और व्यवहार बिल्कुल दो अलग-अलग पुर्व पश्चिम जैसी बातें हैं। अध्यात्म की दिशा अलग है, और व्यवहार की अलग है लेकिन,

लेकिन जब-तक भीतर का साक्षी घटित नहीं होता, व्यक्ति गुरु के नियमों से बंधा होता है।

व्यक्ति के भीतर का जब मी तूं भेदभाव खतम होता है, जब स्री पूरष भेदभाव खतम होता है, जब भीतर का साक्षी घटित होता है, व्यक्ति में जब देह भाव जाकर आत्मा भाव आ जाता है, जब बाहर के सद्गुरु भीतर विद्यमान होते हैं, तब ऐसे व्यक्ति के लिए कोई नियम नहीं रहते। तब उसकी भीतर ही भीतर हर समय आरती पुजा चल रही होती है। तब केवल परमात्मा ही बचता है, व्यक्ति नहीं बचता। तब मैं की मृत्यु होती है और स्व प्रकट होता है, तब व्यक्ति नियमों से पार हो जाता है। लेकिन तब-तक नियमों को निभाना ही निभाना है। नियम निभाना यह अध्यात्म की शुरुआती अवस्था है।

अध्यात्म अंतर्मुखता है और व्यवहार बहिर्मुखता।

अध्यात्म भावमुक्त अनुभूति हैं।

आध्यात्मिक व्यक्ति सुख-दुख से मुक्त होता है।
अध्यात्मिक व्यक्ति अपने “स्व” के अनुभूति में, अपने स्वाभाविक शांति में स्थित रहता है।

शांति की अनुभूति अध्यात्म है।
अपनापन-परायापन रहित अनुभूति अध्यात्म है।

अध्यात्म निवृत्ति है, और व्यवहार प्रवृत्ति।

विकल्प मुक्त, प्रतिक्रिया मुक्त अनुभूति अध्यात्म है।
अविनाशिनी अनुभूति अध्यात्म है।
अपरिवर्तनशील सतत् एकरसात्मक अनुभूति अध्यात्म है।

अध्यात्म आत्मोन्मुख है, अध्यात्म में पाप-पुण्य नहीं होता।

अध्यात्मिक होना मतलब आत्मा के स्वभाव की अनुभूति में रहना।

अध्यात्म सनातन वस्तु है। भीतर का जो द्रष्टा है, जो चेतन साक्षी है, वह अध्यात्म है।

अपने होने का, अपने अस्तित्व का बोध, आत्मा का साक्षात्कार अध्यात्म है।
जब मन पुर्ण निर्विचार बनता है, तब इस अध्यात्म की अनुभूति होती है।

अध्यात्म की शुद्ध समझ के बिना अध्यात्म के पथ पर चलना, आध्यात्मिक विकास करना संभव नहीं, अध्यात्म की खोज में निकला व्यक्ति पारंपरिक व पारिवारिक संस्कारों से मुक्त होता है, स्वतंत्र हो जाता है।

“धर्म”

धर्म का एक अर्थ स्वभाव भी होता है, और एक अर्थ कर्तव्य पालन करना भी होता है।

धर्म अनेक होते हैं और व्यक्ति परत्वे बदलते हैं। जैसे की, शरीर धर्म, परिवार धर्म, समाज धर्म, राष्ट्र धर्म इत्यादि।

धर्म का संबंध अध्यात्म से भी होता है और व्यवहार से भी। धर्म नियमों से बंधा होता है। धर्म बेशक अध्यात्म की ओर ले जाता है, लेकिन अध्यात्म बिल्कुल अलग है और धर्म उससे रिलेटेड।

भगवान दत्तात्रेय जी की “कदा योगी कदा भोगी” वाली अवस्था के बारे में आपने सुना ही होगा। तो यह परमहंस अवस्था है, इसमें नियम नहीं होते, लेकिन इस अवस्था तक जानें के लिए शुरुआती नियमों से ही जाना होता हैं।

धर्माचरण आत्मा तक, अध्यात्म तक ले जाता है, धर्म आत्म प्राप्ति का साधन मात्र है।

बेशक आत्मा पहले से ही प्राप्त है, लेकिन उसको तत्व से जानना उसकी प्राप्ति कहलातीं है। और धर्म पालन आत्मा को तत्व से जानने में सहायक होता है।

अध्यात्म यानी आत्मा और धर्म यानी आत्मा प्राप्ति का साधन।

धर्म पालन मतलब किसी भी जीव को अपने से किंचित मात्र भी दुःख न हो ऐसा व्यवहार। धर्म पालन मतलब इंसान के भीतर की इंसानियत।
धर्म पालन मतलब जिससे मुझे दुःख होता है, वैसा दुःख मैं किसी और को ना दूं।

धर्म पालन मतलब किसी का दिल न दुखे इस प्रकार जीवन जीना। धर्म मनुष्य को अध्यात्म से जोड़ता है। और अध्यात्म का अर्थ आत्मा होता है।

धर्म पालन करना मतलब हमे जो पसंद हो वही व्यवहार दुसरो के साथ करना। और हमे जो पसंद नहीं वैसा व्यवहार दुसरो के साथ भी नहीं करना। जैसे की हमारे साथ कोई बुरा बर्ताव करें, तो हमें अच्छा नहीं लगता, तो हमें भी किसी के साथ बुरा बर्ताव नहीं करना धर्म पालन है।

धर्म सेवा और सहकार्य का दूसरा नाम है। धर्माचरण मतलब जगत की सेवा और खुद के स्व-स्वरूप आत्मा की भी सेवा मतलब उस ज्ञान तक पहुंचने का प्रयास करना।

धर्म हमें सत्य में स्थापित करता है, और सत्य केवल अध्यात्म है आत्मा है। धर्म पालन मतलब अपने मन को निर्मल करना। और उसके लिए ही, मन की निर्मलता के लिए ही सेवा या परोपकार किया जाता है।
धन्यवाद!

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