“ज्ञानदेव सांगे दृष्टांताची मात, साधूचे संगती तरणोपाय ।

सहा यानी छे। अपने भीतर से छे की छे, षड्विकार जिसने धो निकालें है, जो अपने निज स्वरूप में स्थापित हो गया है, वह है साधूं। और वह साधूं कौन है? तोह पुर्ण सद्गुरु वह साधूं होते हैं।

ऐसे पुर्ण आत्मज्ञानी महापुरुषों की, सच्चे संतों की, सद्गुरु की संगति में, उनके सत्संगों में हमारे भीतर ज्ञान का दिप जलता है, हमारे भीतर ज्ञान वैराग्य विवेक की उत्पत्ति होती है। और फिर उस ज्ञान-विवेक-वैराग्य की तलवार से षड्विकारो की जड़ें काटी जाती है।

सत्संग का प्रभाव ऐसा है कि, लोभ, मोह-माया, ममता, मद-मत्सर, अहंकार, काम-क्रोध और कामनाएं सभी धीरे-धीरे मनुष्य को छोड़कर जाने लगते हैं। और एक समय ऐसा भी आता है, की मनुष्य पुरा निष्काम हो जाता है। तब वह होता है, लेकिन उसके भीतर कुछ भी नहीं होता। न काम, न क्रोध, न लोभ, न मोह, न माया, न ममता।

जब-तक पूर्ण सद्गुरु की, आत्मज्ञानी संतों-महापुरुषों की कृपा प्राप्ति नहीं होती, संतों-महापुरुषों की संगति में मनुष्य नहीं आता, जब-तक मनुष्य के भीतर पुर्ण वैराग्य उत्पन्न नहीं होता, जब-तक भीतर ज्ञान-प्रकाश नहीं होता, जब-तक भीतर गुरु के ज्ञान से विवेक-वैराग्य का जन्म नहीं होता, जब-तक अपने देह सहित समस्त संसार, समस्त दृश्य जड़ जगत विनाशी है, नश्वर है, और केवल आत्मा अविनाशी है का बोध नहीं होता तब-तक मोह-माया, लोभ-अहंकार पुर्ण रुप से नहीं छूटते। तब-तक मनुष्य की काम और कामनाएं, इच्छा और आकांक्षाएं नहीं मिटती।

मोह के छूटने के लिए भीतर विवेक का होना जरूरी है, मोह के छूटने के लिए संतों महापुरुषों का सत्संग जरुरी है।

मोह विकार मतलब अज्ञान के कारण हमारे भीतर, हमारे व्यक्तित्व में आयीं हुई एक कमी। अज्ञान के कारण आसक्तियां उत्पन्न होती है। मोह भी अज्ञान का परिणाम है।

हम मनुष्य प्रति परमात्मा है, लेकिन हमारे भीतर अज्ञान का परदा छा गया है, और इसी अज्ञान के कारण हम भीतर के ईश्वर को छोड़ बाह्य नश्वर चीजों में आसक्त होते हैं।

सदगुरु उपदेश, सद्गुरु वचन, सद्गुरु का सत्संग, सद्ग्रंथ वह तीर होते हैं, जो सीधे हमारे भीतर के मोह-माया-ममता पर वार करते हैं। हमारी आसक्तियां छूडाते है।

मोह को हटाने के लिए मनुष्य को नित्य सद्गुरु प्रदत्त सत्संग सुनने का शौक पालना चाहिए।

मोह को हटाने के सद्ग्रंथों का, विरागी महापुरुषों के चरित्रो का वाचन भी आवश्यक है।
मोह को हटाने के लिए सदगुरु सेवा, और जनमानस के लिए भी सेवाभाव आवश्यक है।

जीवन क्षणभंगुर है, देह सहित संसार नश्वर है, अनित्य है। देह भी एक दिन साथ नहीं देगी। मनुष्य शरीर की मृत्यु अटल है, और साथ में कुछ भी जानेवाला नहीं है। तो मोह को छूडाने के लिए इतना विवेक काफ़ी है।

मोह रखकर क्या करेगा इंसान। नाशवान चीजों से मोह रखने वाला काल का ग्रास बनता है। आत्मज्ञानी, विवेकी-वैरागी, भीतर से जागा हुआ इंसान भवसागर तर जाता है, मतलब आत्मजागृति के कारण उसकी मृत्यु नहीं होती।

हमारा तों एक सद्गुरु से प्यार हो गया और मोह, लोभ-लालच सबकुछ छूट गया। कुछ छोड़ना नहीं पड़ा। परमात्मा से किया हुआ प्रेम मनुष्य को विरागी बना देता है, संसार से, मोह से छूडा देता है।
धन्यवाद!

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