ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या की जब अनुभूति होती है, तब मनुष्य के लिए सुख दुःख समसमान हो जातें हैं।
जो मन से परे गया, जो अपने आत्मा रूपी स्वघर में स्थित-स्थिर हो गया उसके लिए अब सुख दुःख समसमान है। सुख-दुःख में समसमान स्थिति का मुख्य कारण है आत्मज्ञान।
एक आत्मज्ञानी को संसार स्वप्न जैसा दिखता है। स्वप्न का और वास्तविक जीवन का कोई संबंध नहीं होता। जैसे छोटे छोटे बच्चे खेल खेलते हैं, यहां प्रकृति और चेतना भी ऐसा ही खेल खेल रहे हैं। ज्ञानी पुरुष संसार के खेल को ऐसे दूर से देखता है। ज्ञानी पुरुष सुखों और दुःखों का द्रष्टा होता है। ज्ञानी पुरुष सुखों और दुःखों में लिप्त नहीं होता। ज्ञानी पुरुष हमेशा अपने ज्ञान और विवेक के कारण संसार में रहते हुए भी बाह्य संसार और सुख-दुख से परे होता है।
ज्ञानी पुरुष हमेशा भीतर की दुनिया में, आत्मज्ञान और आत्मा की दुनिया में रमन करता है। ज्ञानी पुरुष देह में होते हुए भी विदेही अवस्था को भोगता है। बाह्य सुख-दुःख उसे भी होते हैं, पर बाह्य सुख-दुःख का उस पर असर नहीं होता।
जब हम अपने स्वयं के वास्तविक स्वरूप को जानते हैं, तब सुख-दुख, मिट्टी-सोना, निन्दा-स्तुति, अपना-पराया, मान-अपमान, गरीब-श्रीमंत, छोटा-बड़ा का भेदभाव खत्म हो जाता है।
सुख-दुःख-निन्दा-स्तुति यह सब बाहरी, ऊपरी ऊपरी चीजें हैं। बाहरी चीजें आत्मज्ञानी को प्रभावित नहीं करतीं। तब उसको केवल मिट्टी के ढेर जैसे शरीरों में चेतना खेलते नजर आतीं हैं। तब उसे मिट्टी और चेतना का खेल नजर आता है।
त्रिकाल ज्ञानी की सुख दुःख में समसमान अवस्था होती है, उसे ही हम सच्चिदानंदमय अवस्था कहते हैं। सुख और दुःख दोनों भी अज्ञान के कारण, संसार और सर्वेश्वर को न जानने के कारण घटित होने वाली बाह्य मानसिक स्थितियां हैं, और कुछ नहीं।
सुख-दुःख का अनुभव होता है, पर देह और मन तक ही सीमित रहता है। आत्मा का सुख-दुःख से कोई लेना-देना नहीं होता। आत्मा नित्य सुखी, शांत, सुखस्वरूप है। तो ऐसे आत्माज्ञान की अवस्था में सुख और दुःख एक-जैसे महसूस होते हैं। उसे ही श्रीमद्भगवद्गीता में स्थित पज्ञ अवस्था कहा गया है। यह स्थित प्रज्ञ अवस्था ज्ञान की अवस्था है।
धन्यवाद!